''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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चार दिनों का है यह जीवन.....

>> Thursday, March 18, 2010

इधर मैंने भी इक्का-दुक्का  ऐसे ब्लॉग देखे, जहाँ खुले आम ज़हर फैलाया जा रहा है. जब मै ब्लॉग की दुनिया में आया था, तो लगा था, कि कोई बड़ा तीर मार रहा हूँ, लेकिन इतने महीने बाद यह देख रहा हूँ, कि यहाँ भी जाति -धर्म  की टुच्चई  चल रही है.धर्म-जातियों के आधार पर  भी ब्लॉग बन गए. वैसे ये लोग नहीं के बराबर है, लेकिन एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है. एक प्रदूषित हवा पर्यावरण को विकृत कर देती है. एक परमाणु बम मानवता का विनाश कर देता है. एक घटिया सोच, एक हलकी-कुंठित टिपपणी सद्भावना का खात्मा कर देती है. लेकिन हम लोग बेबस है. देखते रह जाते है. फिर भी पागल-सनकी लोगों के विरुद्ध लिखा जाना चाहिये. हो सकता है ये सुधारने की प्रक्रिया से गजरे. ये नहीं तो इनके बच्चे सुधर जाये. इस दिशा में निरंतर कदम बढाने की ज़रुरत है. सद्भावना का पुल बने. इस पुल बनाने में एक गिलहरी जैसा योगदान मेरा भी रहता ही है. इसी कड़ी में आज फिर 

गीत
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चार दिनों का है यह जीवन क्यों  नफ़रत में काट रहे.
मानव को मानव रहने दो धर्मो में हम बाँट रहे .

धरती पर आये हम केवल बन कर के इनसान,
लेकिन हमें लड़ा देते है कुछ शातिर हैवान.
धर्म नहीं इनका  धंधा है, लेकिन यह भी गन्दा है. 
इनके कारण प्यार-मोहबत को लग जाता फंदा है.
जीवन ऐसा प्यारा हो कि सदा प्यार की  ठाठ रहे.
मानव को मानव रहने दो क्यों धर्मो में बाँट रहे?

बहुत हो गया अब धर्मो की आड़ यहाँ पर बंद हो,
केवल मानव धर्म चले बस, इसकी यहाँ सुगंध हो. 
मेरा धर्म है सबसे अच्छा, यह भी कोई बात है,
दूजे की निंदा करना तो केवल आतमघात है.
यही बड़े हत्यारे हरदम  इनके नकली पाठ रहे.
मानव को मानव रहने दो क्यों धर्मो में बाँट रहे?

धर्म, जात, भाषा के झगड़े करते पागल लोग,
इनका हो उपचार यहाँ पर इन्हें लगा है रोग.
जो सच्चा इनसान रहेगा, सबकी बाते मानेगा. 
अपने जैसा ही दुनिया को वह भी अपना जानेगा. 
पागल, बहशी, अनपढ़ सारे, ज्यों मखमल में टाट रहे.
चार दिनों का है यह जीवन क्यों  नफ़रत में काट रहे.
मानव को मानव रहने दो धर्मो में हम बाँट रहे .

9 टिप्पणियाँ:

Unknown March 18, 2010 at 10:46 AM  

भाई साहेब आपकी चिन्ता सबकी चिन्ता है..........

लेकिन सच तो ये है कि धर्म पर विवाद वही करते हैं

जो जानते ही नहीं कि धर्म होता क्या है ?

आपकी कविता पसन्द आई...........

Udan Tashtari March 18, 2010 at 1:03 PM  

चार दिनों का है यह जीवन क्यों नफ़रत में काट रहे.
मानव को मानव रहने दो धर्मो में हम बाँट रहे

-उम्दा और जरुरी संदेश!!

Yogesh Verma Swapn March 18, 2010 at 7:16 PM  

wah girish ji, bahut umda aur avashyak sandesh aaj ke vatavaran men.

شہروز March 18, 2010 at 9:35 PM  

काश सभी भारतीय यहाँ इसका अर्थ सभी ब्लागरों से भी समझा जाय....और विशेष कर उन चंद ब्लागरों से भी है जो भारतीय नागरिकता के भेस में नफरत के बीज बो रहे हैं...को आपकी कविता समझ में आ जाए!!
पिछले तीन सालों से मैं इस जगत में हूँ..पहले सिर्फ एक ही समूह ऐसे काम कर रहा था..लेकिन इस वर्ष एक और समूह आ गया..तो भाई साहब इन्हें तो मज़ा ही आ गया..और फिर ताबड़ तोड़ सवाल-जवाब की कार्यवाही अपने-अपने अंदाज़ में लोग देने लगे.और नफरत अपने उबाल पर आ गयी..जो पहले सतह पर नहीं थी.
कुछ लोग तो कमेन्ट भी अपने मन-मुताबिक प्रकाशित करने लगे..मेरे एक मित्र ने शिकायत की ये बात दीगर है कि वह मित्र मेरे खिलाफ हमेशा रहते हैं..जगह जगह मेरी पोस्ट पर आग उगलते हैं..लेकिन वहाँ जो उन्होंने कमेन्ट किया था..मुझे दिखाया था..बात सिर्फ उसमें यही थी कि पोस्ट-लेखक को निष्पक्ष होंकर परिदृस्य देखने की हिदायत थी.

हिन्दू और मुस्लिम दोनों जमात के कुछ ब्लागर इस फसल को उपजाने में लगे हैं..अब कुछ लोग तो बजाप्ता चन्दा भी मांग रहे हैं..


मैं साझा-सरोकार पर जिस कीमत पर श्रम कर रहा हूँ..उसकी पोस्ट कभी हिट होती हुई देखी आपने!!!!
कभी नहीं देख सकते, लोग पढने भी कम आते हैं..
लेकिन फ़िज़ूल की बकवास सुपर-हिट होती है..ब्लागवाणी में!!!!!

अंत में अमृता प्रीतम के चंद अलफ़ाज़:

ऐ खुदा ! इस कड़े मौसम में
रहमत के चार क़तरे बख्श दे
कि नफ़रत की दागदार छाती में
मोहब्बत के फूल खिल सके!

vandana gupta March 18, 2010 at 11:01 PM  

बहुत सुन्दर सन्देश देती उम्दा रचना।

संजय भास्‍कर March 18, 2010 at 11:43 PM  

जो जानते ही नहीं कि धर्म होता क्या है ?

आपकी कविता पसन्द आई...........

Anonymous March 19, 2010 at 6:10 AM  

गिरिश पंकज जी, ब्‍लागर पर आपकी टिप्‍पणी पढ कर ही कुछ कहने कर हौसला कर रहा हू, दरअसल इसमे भी माफिया किस्‍म के लोग बस रहे हैं या जमे बैठे हैं तकनीक की जो बाते करते है वह हवा हवाई ही हैं जो हाल मीडिया में घुस आऐ अवसर व गिरोहबंदी का है वही ब्‍लागर में दिख रही हैं दुखद तो से है कि औरो के अपेक्षा यहां ये बात शुरूआती दौर में ही आ गई , खैर हमें तो सिखना हैं शुभकामनाओ के साथ.......... सतीश कुमार चौहान भिलाई

Kusum Thakur March 19, 2010 at 9:55 AM  

गिरीश जी ,
वाकई आपकी रचना एक सुन्दर सन्देश लिए हुए है !!

शरद कोकास March 19, 2010 at 12:38 PM  

चलो अच्छा हुआ " सद्भावना दर्पण " के सम्पादक श्री गिरीश पंकज को यह बात जल्दी समझ मे आ गई । चिंता न करे सद्भावना का यह अभियान जारी रहेगा और जीत भाईचारे की ही होगी ।

सुनिए गिरीश पंकज को

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