''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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डर लगता है यार

>> Sunday, December 20, 2009

तीन दशक पहले जब लिखना शुरू किया था, तब नवगीत आन्दोलन भी ज़ोरों पर था. मै गीत तो लिखता ही, था, कभी-कभार नवगीत भी लिखने का मन होता था. तब मै केवल बीस साल का था , जब यह गीत बना था. इस गीत का स्थाई और पहला अन्तरा भर याद रह गया. अचानक यह गीत आज याद आया, तो लगा  कि इसे 'पोस्ट' कर ही देना चाहिए. लेकिन पूरा गीत याद नहीं आया, मजबूरी में इसके कुछ नए अंतरे  सोचने पड़े. वर्तमान समय की विसंगतियां तो मन को मथती रहती ही है. इसलिए कुछ और नए अंतरे तैयार हो गए. सुधी पाठक देखे, कितना सफल हो पाया हूँ. 
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// नवगीत //

डर लगता है यार...
डर लगता है यार बताओ
कहाँ धरूँ मै पैर,
गड़े झंडे ही झंडे.
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सडको पर
नंगे आदमखोर खड़े
कदम-कदम पर मिल जाते है 
यहाँ-वहां-कुछ चोर बड़े.
धरम-ईमान की चाकू ले कर

चले आ रहे 
पण्डे ही पण्डे.
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छल है, बल है,
धन का सारा खेल यहाँ.
अब गरीब के हिस्से में है
कोई उत्सव
अरे कहाँ
धनपशुओं के लिए रोज़ है
सन्डे ही सन्डे. 
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अपराधी अब हाईटेक है,
इस पर इतराते.
और उधर सज्जन बेचारे,
पीछे रह जाते.
दबकर चलना ठीक है यारो
सबकी सुनना ठीक है यारो
प्रतिरोधों को सदा मिलेंगे
डंडे ही डंडे...
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लूटो..जितना लूट सको तुम

यह बाज़ार खुला है.
तन का, मन का देखो सुन्दर-
कारोबार खुला है
बिक जाओ परवाह नहीं
नैतिकता की चाह नहीं
मिलते है अब तो ऐसे ही 
फंडे ही फंडे.

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