''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
&COPY गिरीश पंकज संपादक सदभावना दर्पण. Powered by Blogger.

व्यंग्य/ (खुराफाती) ब्लॉगर का शिशु-गीत...

>> Friday, July 9, 2010

ब्लॉग की दुनिया एक महान दुनिया का नवसृजन-सा है. यह वैश्विक-लोकतंत्र का जीवंत उदाहरण भी है. हर कोई अपना ब्लॉग बनाकर मन की बात लिख सकता है. लेकिन इस सहज-अधिकारवाद के चलते क्या लोग कुछ भी लिखने के लिये स्वतन्त्र हैं? यह विचारणीय मुद्दा है. इधर कुछ धार्मिक किस्म के लोग कट्टरता दिखा रहे है, कुछ अपनी जाति का गुणगान कर रहे है तो कुछ धर्म का. कुछ बेचारे तो, जिन्हें अभी पूरी तरह ज्ञानबोध भी नहीं हुआ है, वे भी सक्रिय हो गए है. खेल-खेल में ब्लॉग बन भी तो जाता है. बहुत-से लोगों के लिये ब्लॉग ज्ञान के, अनुभव के प्रसार का महान साधन है, तो कुछ के लिये यह केवल ''समय बिताने के लिये करना है कुछ काम'' सरीखा उपक्रम लगता है.बचपन में एक कविता पढ़ी थी, ''माँ खादी की चादर दे दे मैं गांधी बन जाऊंगा'', उसी बाल-गीत की तर्ज़ पर - ब्लाग को मज़ाक समझनेवालों पर - विनम्रतापूर्वक व्यंग्य करता एक गीत, सुधी-पाठको के लिये.... 
(खुराफाती) ब्लॉगर का शिशु-गीत..

अम्मा इंटरनेट लगवा दे,
मै ब्लॉगर बन जाऊँगा. 
दुनिया भर में बैठे-बैठे,
''पॉपुलर'' हो जाऊँगा.

मुझे एक तू लेपटॉप दे दे,
बाहर ले के जाऊँगा.
जहाँ भीड़ दिख जाय वही पर,
नेट खोल भिड जाऊँगा.
सब समझेंगे बुद्धिजीवी,
मन ही मन मुस्काऊंगा.
नहीं किसी से सीखूंगा कुछ,
छोटा न हो जाऊँगा.

अम्मा इंटरनेट लगवा दे,
मै ब्लॉगर बन जाऊँगा.

अंट-शंट जो भी मन आये,
मै तो लिखता जाऊँगा.
सेटिंग करके जल्दी-जल्दी,
खूब टिपण्णी पाऊँगा.
हलकी-फुलकी बातें करके,
दिल जीतूंगा दुनिया का.
सबकी फोटो भी देदूंगा,
क्या मुन्ना, क्या मुनिया का.
बहुत हो गया ज्ञानी-ध्यानी,
काहे ज्ञान बढ़ाऊंगा.

अम्मा इंटरनेट लगवा दे,
मै ब्लॉगर बन जाऊँगा. 

ये भी ब्लॉगर, वो भी ब्लॉगर,
हर कोई अब ब्लॉगर है.
कोई सचमुच ज्ञानी-ध्यानी,
कोई सूखी गागर है.
कट्टरपंथी बनकर मैं तो,
'गंद' बहुत फैलाऊँगा.
लोग लड़ेंगे आपस में बस,
मैं तो कान खुजाऊंगा...
पढ़ना-लिखना कौन करे अब,
इसमें वक़्त बिताऊँगा.

अम्मा इंटरनेट लगवा दे,
मै ब्लॉगर बन जाऊँगा

14 टिप्पणियाँ:

समयचक्र July 9, 2010 at 8:44 AM  

अम्मा दें इनटरनेट दें ला दे
अम्मा इनटरनेट ला दें ला दें
मेरा मुंडा सरका जाय ...
अम्मा इनटरनेट लगवा दें लगवा दें
मेरा मुंडा सरका जाय ...
ला दें लगवा दें इनटरनेट लगवा दें
मेरा मुंडा सरका जाए

हा हा हा ...वाह साब आनंद आ गया ...आभार

Anonymous July 9, 2010 at 8:56 AM  

Great ho idea sir ji
पर बिना पढे टिप्पणी देने पर आपके ईस टेम्पलेट ने मजबुर कर दिया ।

राज भाटिय़ा July 9, 2010 at 9:04 AM  

अजी अब्ब्बा से मांगो, ओर अम्मा की सिफ़ारिस लगवाओ जरुर मिल जायेगा, बहुत सुंदर जी

ASHOK BAJAJ July 9, 2010 at 10:43 AM  

नए युग का गीत .धन्यवाद ------- अशोक बजाज रायपुर

ब्लॉ.ललित शर्मा July 9, 2010 at 11:03 AM  

हा हा हा

बहुत खुराफ़ाती हैं भैया

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" July 9, 2010 at 9:19 PM  

अम्मा देख, हाँ देख, तेरा मुंडा बिगड़ा जाये

संगीता स्वरुप ( गीत ) July 9, 2010 at 10:31 PM  

सच्ची एक खुराफाती गीत...:):)

सूर्यकान्त गुप्ता July 10, 2010 at 12:34 AM  

गिरीश भाई साहब को हमारा नमस्कार। हा हा हा हा हा……………करारा व्यंग्य। हम भी इसी थैले के चट्टे हैं। "अंट-शंट जो भी मन आये,
मै तो लिखता जाऊँगा.
सेटिंग करके जल्दी-जल्दी,
खूब टिपण्णी पाऊँगा.
हलकी-फुलकी बातें करके,
दिल जीतूंगा दुनिया का.
सबकी फोटो भी देदूंगा,
क्या मुन्ना, क्या मुनिया का.
बहुत हो गया ज्ञानी-ध्यानी,
काहे ज्ञान बढ़ाऊंगा." जय जोहार्………

vandana gupta July 10, 2010 at 12:53 AM  

हा हा हा ………………मज़ा आ गया।

विवेक रस्तोगी July 10, 2010 at 2:20 AM  

बहुत ही बेहतरीन कविता मजा आ गया।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून July 10, 2010 at 4:05 AM  

वाह आपका शिशुगीत व शिशुभावनएं बहुत सुंदर हैं.. ये बस हो ही जाए...आमीन.

RAJNISH PARIHAR July 10, 2010 at 4:09 AM  

बिलकुल सही फ़रमाया आपने.....आजकल की यही डिमांड है...

अविनाश वाचस्पति July 10, 2010 at 8:42 AM  

पंकज जी आपने तो मन कमल ही खिला दिया।

विनोद कुमार पांडेय July 10, 2010 at 8:26 PM  

चाचा जी मजेदार बाल-गीत....आज कल ब्लॉगिंग की बढ़ती प्रसिद्धि में बच्चों की भी यही इच्छा है क्योंकि और कही कुछ नाम हो ना हो यहाँ बहुत जल्द नाम कमाने के आसार है...

बढ़िया व्यंग....प्रणाम चाचा जी

सुनिए गिरीश पंकज को

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