नई ग़ज़ल/ तलवारें है कागज की पर जुल्म मिटाने निकले हैं.....
>> Wednesday, December 22, 2010
तलवारें हैं कागज की पर जुल्म मिटाने निकले हैं
अपनी बस्ती मे देखो ये कुछ दीवाने निकले हैं
अपनी बस्ती मे देखो ये कुछ दीवाने निकले हैं
अत्याचारों की ये लंका आखिर कब तक चमकेगी
पवनपुत्र-सी हिम्मत लेकर आग लगाने निकले हैं
जहाँ कहीं अन्याय दिखे तो मुर्दे ही खामोश मिले
जिंदा लोगों को देखा है वे चिल्लाने निकले हैं
कैद नहीं होगा अब सूरज अंधियारों की बस्ती में
जब सूरज के बेटे उसको मुक्त कराने निकले है.
मर जायेंगे लेकिन हरपल सच का साथ निभाएंगे
यानी के हम भी पागल हैं जान गँवाने निकले हैं.
अपने हैं अपनों की खातिर त्याग ज़रा करना सीखो
नादां-अंधे खुदगर्जो को यह समझाने निकले हैं
सत्ता की चौखट पर जिनने खुद को ही नीलाम किया
हम ऐसे नाकारों के सिर ताज सजाने निकले हैं
सुख में डूबा जिनका जीवन वे दुक्खों की बात करें
कुछ शातिर-अफसर कवियों का पता लगाने निकले हैं
दुनिया छद्मों में जीती है इसीलिये इस बस्ती में
दुःख का पर्वत लेकर के जबरन मुस्काने निकले हैं
वक़्त भला था जब तक सारे आगे-पीछे होते थे
बुरा वक़्त आया है तो अपने बेगाने निकले हैं
इस बस्ती में लूट लिया है मानवता को लोगों ने
कहते हैं कुछ चेहरे तो जाने-पहचाने निकले हैं
सबके हिस्से में उजियारा आये इस खातिर पंकज
शब्दों के दीये हम लेकर मंज़िल पाने निकले हैं
20 टिप्पणियाँ:
ओह कमाल की गजल है। बहुत खुब।
जहाँ कहीं अन्याय दिखे तो मुर्दे ही खामोश मिले
जिंदा लोगों को देखा है वे चिल्लाने निकले है
बहुत अच्छी गज़ल ...
सबके हिस्से में उजियारा आये इस खातिर पंकज
शब्दों की बैसाखी लेकर मंज़िल पाने निकले हैं
aapke kam karne ka tariks pasand aya , badhai
उजास फैलाती एक और सार्थक रचना.
बहुत सुन्दर! ज़बरदस्त! बेहतरीन!
शानदार प्रस्तुति. आभार...
शब्दों के दीये हम लेकर मंज़िल पाने निकले हैं !
वाह! शब्दों के दीये हों तो रौशनी ही रौशनी होगी....
सुन्दर प्रस्तुति!!!
जहाँ कहीं अन्याय दिखे तो मुर्दे ही खामोश मिले
जिंदा लोगों को देखा है वे चिल्लाने निकले है
"शब्दों की बैसाखी लेकर मंज़िल पाने निकले हैं"
शब्दों की नई परिभाषा हो गयी यह तो....
शब्द बाण, शब्द तलवार शब्द बैसाखी. .....
वक़्त भला था जब तक सारे आगे-पीछे होते थे
बुरा वक़्त आया है तो अपने बेगाने निकले हैं
बेहतरीन ग़ज़ल। बधाई।
पवंपुत्र के मिथक का बढ़िया प्रयोग है ।
prerak aur anukarneey kawita
ramesh sharma
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना कल मंगलवार 28 -12 -2010
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
इस बस्ती में लूट लिया है मानवता को लोगों ने
कहते हैं कुछ चेहरे तो जाने-पहचाने निकले हैं
Bahot khoob! josh se bhari rachna sahi path pe badti hui... abhar!
मर जायेंगे लेकिन हरपल सच का साथ निभाएंगे
यानी के हम भी पागल हैं जान गँवाने निकले हैं.
waah !
Awesome !
.
हकीकत का हैरतंगेज़ बयान. मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण सुंदर गज़ल.बधाई.
"यानि हम भी पागल हैं जान गंवाने निकले हैं"
भावों से लबलेज़ मुकम्मल ग़ज़ल के लिये गिरिश जी को बधाई व धन्यवाद।
बहुत ख़ूब!
संदेशात्मक रचना !
दुनिया छद्मों में जीती है इसीलिये इस बस्ती में
दुःख का पर्वत लेकर के जबरन मुस्काने निकले हैं
बहुत प्रेरक, सुन्दर, प्रवाहपूर्ण प्रस्तुति..आभार
व्यंगात्मक गज़ल मेरी पहली पसंद है.पता नहीं इस ब्लाग तक पहले क्यों नहीं पहुंचा?
आदेश हो तो फालो करना चाहूँगा.
सबके हिस्से में उजियारा आये इस खातिर पंकज
शब्दों के दीये हम लेकर मंज़िल पाने निकले हैं
जब शब्दों के दीये हर जगह टिमटिमाएगें तो अंधेरे कैसे टिक पाएंगे भला. आशा का उजास फ़ैलाती खूबसूरत प्रस्तुति.
सादर
डोरोथी.
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