Thursday, February 25, 2016

हिंसा : तीन कविताएँ

1
विरोध का ये भयानक हिंसक तरीका है कि
किसी के चेहरे पर उड़ेल दो तेज़ाब 
फूंक दो घर किसी का / सबक सिखाने के नाम पर 
माँ-बहिनों के साथ करते रहो दुराचार 
एक बेहद निर्लज्ज समय में जीते हुए 
डर लगता है कि न जाने कब कौन 
हमारे लिए दे दे किसी को सुपारी 
सिर्फ इसलिए कि हम उनके साथ नहीं खड़े हैं 
या फिर हम उनसे क्यों बड़े हैं?
2
मान लिया कि हिंसक लोगों के खिलाफ 
लड़नी है लड़ाई लेकिन एक हिंसा अगर 
दूसरी हिंसा के बरक्स खड़ी होगी 
तो सोचिए न, वो हिंसा और कितनी बड़ी होगी .

3
हिंसा से हिंसा ख़त्म नही होती कभी / भड़कती है और 
जो लोग यह नही समझते
आग में पानी नहीं, घी डालते हैं 
फिर कुछ नारे उछालते हैं
कि हिंसा ख़त्म नहीं हो रही. 
शायद इसलिए भी कि / हिंसा पर चर्चा करने का 
'सुख' ही अलग होता है / अंतहीन चलती है बहस. 
यह समय चालाक अभिनेताओं का है / जो आग में डालते रहते हैं घी 
और उधर आग बुझाने की उत्कट चाह लिए / सच्चे लोग आंसूओ से काम चलाते हैं 
क्योंकि उनको कोई नहीं देता पानी
संवेदनहीन दौर की यही है शर्मनाक कहानी.

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