विनोदशंकर शुक्ल : मेरे गुरुदेव
गिरीश पंकज
हिंदी व्यंग्य की दूसरी पीढी के सशक्त हस्ताक्षर विनोदशंकर शुक्ल अब हमारे बीच नहीं है। उनका जन्म 30 दिसम्बर, 1943 को हुआ था. मुम्बई में 9 दिसम्बर को उनका निधन हो गया. इस खबर को सुनकर हृदय दुःख से भरा है। उनसे मेरा गहरा लगाव था. वे मेरे गुरु थे. बाद में तो वे मित्रवत स्नेह देते रहे। छत्तीसगढ़ कालेज, रायपुर से मैंने हिंदी में एमए (1982-83) किया, तब वे मेरे अध्यापक थे.(उस समय महिला व्यंग्यकार के रूप में चर्चित डॉ स्नेहलता पाठक भी हमे पढ़ाया करती थी.) तब दैनिक युगधर्म में नौकरी साथ-साथ रात्रिकालीन महाविद्यालय में आकर पढ़ाई भी करता था. व्यंग्य गहरी रुचि के कारण उस वक्त युगधर्म में व्यंग्य स्तम्भ 'देखी-सुनी' लिखना शुरू किया था.कॉलेज पढ़ने पहुँचता तो गुरुदेव शुक्ल प्रसन्न हो कर बधाई देते। उन्होंने एक बार कहा था, ''तुममे बड़ी सम्भावना है''. वे मुझे निरंतर प्रोत्साहित करते थे. कभी-कभी कुछ विषय भी सुझाते कि इस पर लिखो। मेरा पहला व्यंग्य उपन्यास जब आया तो उन्होंने जी-खोल कर तारीफ की थी। वे एक गंभीर प्राध्यापक थे. उनके अध्यापन के कारण ही आधुनिक साहित्य को लेकर मेरी दृष्ट कुछ साफ़ हुई। वे कालेज में सक्रिय रहते थे. उन्होंने मुझे महाविद्यालय के छात्रों के बीच बानी गई संस्था साहित्य परिषद् का अध्यक्ष बना दिया था.मैं फाइनल में था, सुभाष मिश्र प्रथम वर्ष में। हम लोगों ने गुरुदेव शुक्ल के मार्ग दर्शन में कुछ साहित्यिक आयोजन भी किये। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और उमाकांत मालवीय जैसे उस समय के चर्चित साहित्यकारों को महाविद्यालय में बुला कर उनका व्याख्यान कराया। महाविद्यालय से मिले साहित्यिक संस्कार ने मेरी धार को तेज करने का काम किया।
पढ़ाई पूर्ण करने के बाद भी विनोद जी से मेरा सम्पर्क बना रहा. उसी समय विनोदजी ने अपने सम्पादन में 'व्यंग्यशती ' नामक पत्रिका निकली, जिसे देश भर के व्यंग्यकारों ने पसंद किया. मैं उनका सहयोगी था. सुभाष मिश्र भी। उस पत्रिका के बहाने मेरे भीतर का व्यंग्यकार और अधिक सक्रिय हुआ और व्यंग्य को लेकर मेरी समझ भी कुछ साफ़ होती चली गई. विनोद जी ने 'व्यंग्यशती' का परसाई -विशेषांक निकलाने की योजना बनाई तो हम लोगों को साथ लेकर वे जबलपुर भी गए। उनके साथ परसाई से मिलना यादगार घटना है. मुझे याद कर के प्रसन्नता हो रही है कि दैनिक युगधर्म में पांच साल तक हमने 'मुखड़ा क्या देखे दर्पण में' नामक व्यंग्य-स्तम्भ लिखा। (१९८७ -९२) यह स्तम्भ सप्ताह में दो बार छापता था, जिसमे हम दोनों के व्यंग्य बारी -बारी से छपते थे. उनके साथ लिखने का सौभाग्य मुझे मिला. एक और सौभाग्य अभी तीन साल पहले मिला जो एक शोधार्थी ने अपने शोध का विषय रखा - ''विनोदशंकर शुक्ल और गिरीश पंकज के व्यंग्य साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन'. इससे मुझे बेहद खुशी मिली। पैतीस साल पहले प्रकाशित एक सामूहिक व्यंग्य संग्रह 'एक बटे ग्यारह' में मुझे भी उनके साथ छपने का अवसर मिला था.
विनोद जी अपने घर पर भी अनेक गोष्ठिया किया करते थे. बाहर से आने वाले अनेक साहित्यकार उनके घर आते। बूढ़ापारा स्थित उनके निवास का नाम ही था ''संस्कृति भवन' वहां साहित्यिक आयोजन होने लगे थे। हरीश नवल, प्रेम जनमेजय, सुभाषचन्दर आदि जब दिल्ली से आते तो एक गोष्ठी वहां हो जाया करती। लतीफ घोंघी भी गोष्ठी में आ चुके थे. व्यंग्य साहित्य पर कुछ सार्थक विमर्श भी विनोद जी के घर पर हुए. उनके साथ मेरी नियमित रूप से भेंट होती रही। जब महान पत्रकार-लेखक स्वराज्यप्रसाद त्रिवेदी जीवित थे, तब विनोदजी के साथ अक्सर त्रिवेदी जी के यहां जाना होता था। शुक्लजी अपनी कार ले कर मेरे घर पहुँच जाते और फिर उनके साथ मैं त्रिवेदी जी के घर पहुँच जाता। विनोद जी अपने साथ नई पीढी को भी जोड़ कर चलते थे। बहुत पहले परसाई जी के समकालीन व्यंग्यकार कृष्णकिशोर श्रीवास्तव के घर भी मैं विनोद जी के साथ जाया करता था। श्रीवास्तव जी हमे दोनों को ही अक्सर अपने पास बुलाया करते थे। वे तीखे व्यंग्यकार थे. उन्होंने कुछ फीचर फिल्मे भी लिखी थी. भोपाल के एक साप्ताहिक में उनका स्तम्भ छपता था ' मैं चुप नहीं रहूँगा''. उनके लेखन से विनोद जी प्रभावित थे इस कारण वे उनके पास जाते और मुझे भी साथ ले जाते। व्यंग्य में पैनापन कैसे आता है, यह श्रीवास्तव जी के व्यक्तित्व से पता चला..
विनोदशंकर जी उदारमन थे. उनका स्नेह मुझे निरन्तर मिलता रहा इसीलिए मैंने अपना एक व्यंग्य संग्रह उनको ही समर्पित किया था. पुस्तक बाद उसकी एक प्रति उन्हें देने उनके घर गया. पुस्तक देख कर वे मुस्कराए और बोले, ''तुमको देखता हूँ, तो अत्यंत खुशी होती है। सोचता हूँ, गुरु तो गुड़ रह गया और चेला शक्कर हो गया. तुमने न केवल व्यंग्य लिखे, वरन व्यंग्य उपन्यास लिख मारे। अब मैं भी एक उपन्यास लिखूंगा।'' उनके घर अनेक बार गया. कभी जब मिले हुए लम्बा अंतराल हो जाता उनका फोन आ जाता। जब भी उनके घर गया, वे प्रेम मिले। नामानुरूप उनमे व्यंग्य और विनोद कूट-कूट कर भरा था। वे शहर और बाहर भी लोकप्रिय थे। हालात यह थी कि कभी विनोदकुमार शुक्ल को कोई को सम्मान मिलता तो लोग विनोदशंकर शुक्ल जी को बधाइयां देते। मीडिया नाम से खबर चल जाती।
विनोद जी ने बहुत अधिक नही लिखा। लेकिन जितना लिखा, मूल्यांकन दृष्टि से काफी है। उनके कुल छह व्यंग्य संग्रह है - सांसद खड़े बाजार में मूल्यसूची ले हाथ, जित देखूँ तित व्यंग्य, अस्पताल में लोकतंत्र, कबीर खड़ा चुनाब में, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ और मेरी 51 व्यंग्य रचनाएँ। लेकिन इन संग्रहों में शामिल रचनाएं हमेशा महत्वपूर्ण रहेंगी। और खुद विनोदजी महत्व बना रहेगा। विभुकुमार चयनिका नामक एक सम्पादित पुस्तक भी प्रकाशित हुई. 'गद्यरंग' और 'विविधा' दो पाठ्य पुस्तके भी लिखीं। साक्षात्कार कुछ चर्चित चेहरो से नामक पुस्तक में उनके कुछ काल्पनिक मगर रोचक साक्षात्कार हैं. विनोद जी अब सशरीर भले ही नहीं है, लेकिन सकृति हमारे समाज के बीच हमेशा विद्यमान रहेंगे उनको मेरा नमन.
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