Monday, July 11, 2022

ग़ज़ल / बदले कहाँ दलाल....


सत्ता बदल गई हो लेकिन बदले नहीं दलाल
पहले भी खुशहाल वही थे अब भी हैं ख़ुशहाल

कुछ लोगों ने जीने का फन सीख लिया कब से
नाच रहे वे हर कुरसी संग दे-दे कर के ताल

खुशहाली के सारे वादे निकल गए फ़र्ज़ी
जनता नित कंगाल मगर कुछ चमचे मालामाल

बहुत भरोसा करके जिसने सौंपी थी कुरसी
आज वही जनता रूठी है करे नित्य हड़ताल

बहुत भरोसा था जनता को लेकिन वह टूटा
कहाँ सोचती हैं सत्ताएँ करे न कुछ पड़ताल

लोकतंत्र के नाम पे केवल दिखते तानाशाह
जो सच बोले नुच जाती है, उस बंदे की खाल

जो सोचे मैं नहीं मरूँगा कर लूँ अत्याचार
उसको भी इक दिन आकर के ले जाता है काल

मछली हो नादान अगर तो फँस ही जाती है
इसीलिए आये मछुआरे लेकर अपने जाल

नकली लोकतंत्र में सबसे अच्छी है अब 'चूप'
क्रांतिकारी पंकजजी हरदम रखना इसका ख्याल

गिरीश पंकज

1 comment:

  1. पूरे तालाब में भाँग घुली है । कोई आये कोई जाए , आम आदमी को ही परेशानी है ।
    सार्थक ग़ज़ल ।

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