डर लगता है यार
>> Sunday, December 20, 2009
तीन दशक पहले जब लिखना शुरू किया था, तब नवगीत आन्दोलन भी ज़ोरों पर था. मै गीत तो लिखता ही, था, कभी-कभार नवगीत भी लिखने का मन होता था. तब मै केवल बीस साल का था , जब यह गीत बना था. इस गीत का स्थाई और पहला अन्तरा भर याद रह गया. अचानक यह गीत आज याद आया, तो लगा कि इसे 'पोस्ट' कर ही देना चाहिए. लेकिन पूरा गीत याद नहीं आया, मजबूरी में इसके कुछ नए अंतरे सोचने पड़े. वर्तमान समय की विसंगतियां तो मन को मथती रहती ही है. इसलिए कुछ और नए अंतरे तैयार हो गए. सुधी पाठक देखे, कितना सफल हो पाया हूँ.
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// नवगीत //
डर लगता है यार... डर लगता है यार बताओ
कहाँ धरूँ मै पैर,
गड़े झंडे ही झंडे.
कहाँ धरूँ मै पैर,
गड़े झंडे ही झंडे.
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सडको पर
नंगे आदमखोर खड़े
कदम-कदम पर मिल जाते है
नंगे आदमखोर खड़े
कदम-कदम पर मिल जाते है
यहाँ-वहां-कुछ चोर बड़े.
धरम-ईमान की चाकू ले कर
चले आ रहे
पण्डे ही पण्डे.
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छल है, बल है,
धन का सारा खेल यहाँ.
अब गरीब के हिस्से में है
कोई उत्सव
अरे कहाँ
धनपशुओं के लिए रोज़ है
सन्डे ही सन्डे.
कोई उत्सव
अरे कहाँ
धनपशुओं के लिए रोज़ है
सन्डे ही सन्डे.
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अपराधी अब हाईटेक है,
इस पर इतराते.
और उधर सज्जन बेचारे,
पीछे रह जाते.
दबकर चलना ठीक है यारो
सबकी सुनना ठीक है यारो
प्रतिरोधों को सदा मिलेंगे
डंडे ही डंडे...
डंडे ही डंडे...
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लूटो..जितना लूट सको तुम
यह बाज़ार खुला है.
तन का, मन का देखो सुन्दर-
तन का, मन का देखो सुन्दर-
कारोबार खुला है
बिक जाओ परवाह नहीं
नैतिकता की चाह नहीं
नैतिकता की चाह नहीं
मिलते है अब तो ऐसे ही
फंडे ही फंडे.
फंडे ही फंडे.
4 टिप्पणियाँ:
बहुत सुन्दर गीत है 20 साल बाद भी इस गीत की प्रसांगिगता समाप्त नहीं हुयी। धन्यवाद्
बहुत बढिया कविता गिरीश भैया, कविता हो गयी, गजल हो गयी, नवगीत हो गया, अब एक प्रेम गीत होना चाहिए। यह मेरी आकांक्षा है। आशा है, आप ध्यान देंगे मै पान की दुकान पर खड़ा हुँ। आभार
वाह गिरीश जी वाह...लाजवाब रचना...व्यंग और सत्य का अनूठा मिश्रण...
नीरज
bahut sunder.
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