>> Friday, September 18, 2009
इस बार एक नई गद्य-कविता.....
बहुत दिनों तक जब
शलभ जी घर नही आए
लंबे प्रवास के बाद जब पिछले दिनों / पिताजी घर लौटे /तो एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा/आजकल /सालिगराम अग्रवाल शलभ जी अपने घर नही आते/ सब राजी-खुशी तो है /तब मैंने भरे मन से बताया कि/ वे अब इस असार-संसार से बहुत दूर चले गए है/ सहसा यकीन ही नही हुआ पिताजी को /यकीन ही नही हुआ कि नही रहे शलभ.../कि नही रहे हमारे शुभचिंतक ... /कि नही रहे पुस्तकों के प्रेमी/महाप्रयाण से ठीक एक दिन पहले हमेशा की तरह सुबह-सुबह घर आए थे शलभ जी / खुश थे बहुत/ अपनी छत्तीसगढ़ी कविता सुनाई थी और मेरी पुस्तक/ पालीवुड की अप्सरा की समीक्षा दे कर कहा था/अब ऐसे उपन्यास कम ही लिखे जाते है/ फ़िर उन्होंने टेबल पर पसरी अपनी मनचाही पत्रिकाए पलटाई /और बोले-आजकल ऐसे घर भी कहाँ रहे /जहाँ पत्रिकाओ और किताबो की एक पूरी दुनिया अठखेलियाँ करती हो/बहिष्कृत होती जा रही है घरो से साहित्य-संस्कृति /बुजुर्गो की तरह/उस रोज़ शलभ जी की आँखे कुछ-कुछ उदास-सी नज़र आयी/ फ़िर वे अचानक बोले-चलता हूँ शाम को प्रवचन सुनने जाऊंगा/ कल फ़िर आऊंगा /अपनी कुछ नई कविताओ के साथ/ दूसरे दिन शलभ जी नही आए/ लेकिन मोबाईल पर ख़बर आई कि नही रहे शलभ जी /अलसुबह /नही रहे शलभ जी...? /नही रहे किताबो के चहेते/पढ़ने के शौकीन/ पढ़ने वाली पीढी के अन्तिम प्रतिनिधि नही रहे/ अब सुबह-सुबह मेरे घर कोई नही आता/पढने वाला बुजुर्ग /अपनी जर्जर लूना पर/ बुजुर्ग जो किताबे पढ़े/ हसरतो के साथ निहारे बेशुमार पत्रिकाओं को/ साहित्य की चर्चा करे और दे जाए जीवन के कुछ अनमोल टिप्स/रोज़ की तरह पक्षी चहचहाते है/हवाये भी चलती है अपनी गति से/ लेकिन इन सबके बीच/ एक दृश्य अब नेपथ्य में चला गया है कि/ मेरे सामने वाली कुर्सी पर / अग्रवाल शलभ बैठे नज़र नही आते/ कभी-कभी लगता है अब आते ही होंगे शलभ जी/कभी-कभार पिताजी भी याद करते है / और फ़िर पढ़ने में लग जाते है साहित्य/पढ़ने वाली पीढी के अन्तिम प्रतिनिधियों में पिताजी भी तो है/ सोचता हूँ कि जब तक पढ़ने-लिखने वाले बुजुर्ग /बचे रहेंगे धरती पर/ फूलो की सुगंध की / तब तक कितनी खूबसूरत बने रहेगी ये दुनिया/ तब तक ही साहित्य सुरक्षित रहेगा/ घरो में/मूल्यों की तरह/पुराने कीमती सामानों की तरह.....
1 टिप्पणियाँ:
शलभ जी पर आपने बहुत अच्छा लिखा है , । मेरा भी ब्लोग देखियेगा अंकल " नन्ही कोपल "
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