''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
&COPY गिरीश पंकज संपादक सदभावना दर्पण. Powered by Blogger.

>> Friday, September 18, 2009

इस बार एक नई गद्य-कविता.....

बहुत दिनों तक जब
शलभ
जी घर नही आए

लंबे प्रवास के बाद जब पिछले दिनों / पिताजी घर लौटे /तो एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा/आजकल /सालिगराम अग्रवाल शलभ जी अपने घर नही आते/ सब राजी-खुशी तो है /तब मैंने भरे मन से बताया कि/ वे अब इस असार-संसार से बहुत दूर चले गए है/ सहसा यकीन ही नही हुआ पिताजी को /यकीन ही नही हुआ कि नही रहे शलभ.../कि नही रहे हमारे शुभचिंतक ... /कि नही रहे पुस्तकों के प्रेमी/महाप्रयाण से ठीक एक दिन पहले हमेशा की तरह सुबह-सुबह घर आए थे शलभ जी / खुश थे बहुत/ अपनी छत्तीसगढ़ी कविता सुनाई थी और मेरी पुस्तक/ पालीवुड की अप्सरा की समीक्षा दे कर कहा था/अब ऐसे उपन्यास कम ही लिखे जाते है/ फ़िर उन्होंने टेबल पर पसरी अपनी मनचाही पत्रिकाए पलटाई /और बोले-आजकल ऐसे घर भी कहाँ रहे /जहाँ पत्रिकाओ और किताबो की एक पूरी दुनिया अठखेलियाँ करती हो/बहिष्कृत होती जा रही है घरो से साहित्य-संस्कृति /बुजुर्गो की तरह/उस रोज़ शलभ जी की आँखे कुछ-कुछ उदास-सी नज़र आयी/ फ़िर वे अचानक बोले-चलता हूँ शाम को प्रवचन सुनने जाऊंगा/ कल फ़िर आऊंगा /अपनी कुछ नई कविताओ के साथ/ दूसरे दिन शलभ जी नही आए/ लेकिन मोबाईल पर ख़बर आई कि नही रहे शलभ जी /अलसुबह /नही रहे शलभ जी...? /नही रहे किताबो के चहेते/पढ़ने के शौकीन/ पढ़ने वाली पीढी के अन्तिम प्रतिनिधि नही रहे/ अब सुबह-सुबह मेरे घर कोई नही आता/पढने वाला बुजुर्ग /अपनी जर्जर लूना पर/ बुजुर्ग जो किताबे पढ़े/ हसरतो के साथ निहारे बेशुमार पत्रिकाओं को/ साहित्य की चर्चा करे और दे जाए जीवन के कुछ अनमोल टिप्स/रोज़ की तरह पक्षी चहचहाते है/हवाये भी चलती है अपनी गति से/ लेकिन इन सबके बीच/ एक दृश्य अब नेपथ्य में चला गया है कि/ मेरे सामने वाली कुर्सी पर / अग्रवाल शलभ बैठे नज़र नही आते/ कभी-कभी लगता है अब आते ही होंगे शलभ जी/कभी-कभार पिताजी भी याद करते है / और फ़िर पढ़ने में लग जाते है साहित्य/पढ़ने वाली पीढी के अन्तिम प्रतिनिधियों में पिताजी भी तो है/ सोचता हूँ कि जब तक पढ़ने-लिखने वाले बुजुर्ग /बचे रहेंगे धरती पर/ फूलो की सुगंध की / तब तक कितनी खूबसूरत बने रहेगी ये दुनिया/ तब तक ही साहित्य सुरक्षित रहेगा/ घरो में/मूल्यों की तरह/पुराने कीमती सामानों की तरह.....

गिरीश पंकज

1 टिप्पणियाँ:

कोपल कोकास September 18, 2009 at 6:43 AM  

शलभ जी पर आपने बहुत अच्छा लिखा है , । मेरा भी ब्लोग देखियेगा अंकल " नन्ही कोपल "

सुनिए गिरीश पंकज को

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