''सद्भावना दर्पण'

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इस बार एक व्यंग्य....

>> Wednesday, October 14, 2009

काले धनवालों से भेंट....
''काला मन और कालाधन देश की प्रमुख समस्या है। जिसका मन काला होता है, उसका धन काला होता है। जब तक काला-पीला न करें, धन वाले कैसे बनें।'' रामलाल जी  धनतेरस के दिन खाली जेब होने के कारण धन के लिए तरस रहे थे. आदमी की जेब खाली हो जाये तो दिमाग भर जाता है. रामलाल बडबडाने लगे. रामलाल ने मेरे घर पर धमकने के साथ ही अपना भाषण शुरू कर दिया था । रामलाल को नेताओं की बीमारी कहाँ से लग गई ? मैं सोच में पड़ गया लेकिन रामलाल था कि जारी था - 'इस देश का भला नहीं हो सकता, कभी भला नहीं हो सकता। जेब हमारी खाली है, ये कैसी दीवाली है? ''
'क्यों भई,  ऐसी क्या बात हो गई ? जेब कैसे खाली हो गयी? '' अपनी  जुबान बंद करने के बाद सिर थाम कर बैठ चुके रामलाल से मैंने पूछा तो बोले -
'अगर इस बात पर कोई परिचर्चा हो कि बलात्कारियों का इस्तेमाल कैसे हो, डकैतों, हत्यारों का सामाजिक उपयोग किस तरह से किया जाए तो सोचो क्या होगा हमारा? बलात्कारियों और तमाम असामाजिक तत्वों की उपयोगिता पर अगर परिचर्चाएं होंगी तो ऐसे लोगों के हौसले तो बढ़ेंगे ही न ? होना तो यह चाहिए कि इन तत्वों का खात्मा कैसे हो, इस पर विचार किया जाए। आजकल तो उल्टी गंगा बह रही है '' मुझे  रामलाल की पहेली कुछ समझ में नहीं आई। बलात्कारियों पर कही परिचर्चा भी नहीं हो रही है तो आखिर किस मुद्दे पर वह अपना 'मूड' खराब कर रहा है। मैंने कहा, 'यार रामलाल, कुछ खुलासा तो करो, आखिर कहना क्या चाहते हो ?''
''तो सुनो, मैं ये कहना चाहता हूँ कि अब खुले इस बात पर चर्चा होने लगी है कि देश में जो काला धन लगातार पैदा होते जा रहा है, उसका उपयोग कैसे हो ? काला धन का खात्मा कैसे हो, अब इस विषय पर विचार ही नहीं होता क्योंकि लोग जानते हैं कि जब तक काले मन होंगे, काला धन भी नौजूद होगा। रामजी ने भी तो एक बार कहा था कि 'सुनौ सिया कलयुग में काला धन और काले मन होंगे, चोर-उचक्के नगर सेठ और प्रभु भक्त निर्धन होंगे, जो होगा लोभी और भोगी वो जोगी कहलाएगा, हंस चुगेगा दाना-तिनका, कौआ मोती खाएगा। तो भैया, मुझे तो लगता है कि रामजी का कहा सच हो चुका है। इसीलिए लोगबाग काले धन को खत्म करने की बजाय काले धन को बाहर निकाल कर उसके उपयोग पर गंभीर चर्चाएं कर रहे हैं। तुम क्या कहते हो ?''
रामलाल ने मुझ से ही प्रश्न कर डाला। जब आपके काला धन हो तो उसे बाहर निकालने की बात करो। यहाँ तो खीसे में धन ही नहीं है तो क्या निकालें बाहर ? भिखारी सामने आकर हाथ फैला देता है तो मारे शर्म के पानी-पानी हो जाना पड़ता है। पैसे ही नहीं हैं तो क्या दें, मना करना पड़ता है। मन करता है, कि  भिखारी के साथ 'पार्टनरशिप' में भीख मांगने का धंधा कर लूं। इसमें काफी कमाई है, लेकिन भीख मांगने के बजाय भूखे मर जाना बेहतर है, सोचकर यचुप रह जाता हूँ। रामलाल के प्रश्न का जवाब क्य दूँ ? मैं उससे कहता हूं, 'चलो, उन लोगों से पूछें, जो सचमुच काले धन के खेवनहार हैं, खेवइया हैं। खवइया हैं।''
रास्ते में मोटूमल से मुलाकात हो गई। इतने मोटे कि लगता है, हाथी का बच्चा चला आ रहा है। कोयले से घिसकर तैयार किया हुआ शरीर, उस पर सफेद वस्त्र। 'अहा, बरनों न जाय छबि मनोहर।'' पेट, इक्कीसवीं सदी की ओर लपकता हुआ। शरीर से दो फुट आगे। लदर-फदर काया। हमने उन्हें रोका। (वे 'स्लिम' होने पदयात्रा कर रहे हैं। रिक्शा वाला 'तिबल' सवारी बैठाने से इंकार कर देता है, कार में घुस नहीं पाते, स्कूटर पंचर हो जाती है और ठेले पर बैठने से उसके उलटने का डर और मोटूमल की हंसी उड़े सो अलग) मोटूमल ने पूछा - 'कहिए, क्या तकलीफ है ?''
'तकलीफ तो आपको है। मोटापे की  तकलीफ ?'' रामलाल ने जवाब दिया,  हम लोगतो फिट-फाट हैं। आपसे कुछ पूछना चाहते है। अच्छा, तो आप ये बताइये कि काले धन को बाहर कैसे निकाला जाए, आपके सुझाव क्या हैं ?
'वाहजी, मैं क्यों बताऊं ?'' मोटूमल पतली हंसीके साथ बोले, 'अपने कालेधन को भला मैं क्यों बाहर लाऊंगा ? वो तो मेरे खून-पसीने की कमाई है। उसे छिपा कर रखूंगा और एक दिन जब मर जाऊंगा तो अपने साथ बांध कर ले जाऊंगा। इसलिए मैं तो काले धन को बाहर लाने के विषय पर कुछ सोचना ही नहीं चाहता।''
'फिर भी, कुछ तो कहिए न, काले धन का उपयोग की छूट मिले तो आप क्या करेंगे ?'' मैंने पूछा।
'करूंगा क्या, और काला धन बनाऊंगा। दो का चार, चार का आठ, आठ कासोलह करूंगा। फिर थोड़ा बहुत दान करके स्वर्ग में जगह आरक्षित करवाऊंगा।''
हमें लगा, इस 'डफर' से जितनी देर बात करेंगे, हर बार काले धन को दो से चार करने की बात करते रहेगा। हमने उससे जान बचाई वरना हमीं को कालाधन समझ कर उदरस्थ कर लेता तो ?
आगे एक नेताजी मिल गए। कुछ-कुछ मोटूमल से मिलते-जुलते। हमने पूछा - 'अगर आपको काले धनके उपयोग की छट मिल जाए तो आप क्या करेंगे।'' नेताजी चकराए। मन ही मन सोचने लगे कि इनको कैसे पता चला कि मेरे पास काला धन है। मेरा काला धन तो 'स्विस बैंकों' में जमा है। कहीं ये लोग जासूस तो नहीं। वे  बोले, 'सच बताइए, कौन हैं आप ?'' हमने कहा - 'साधारण नागरिक। आजकल देश में कालेधन को बाहर निकालने पर खुल्लम खुल्ला चर्चा हो रही है, इसलिए हम लोग भी आपसे खुल्लम खुल्ला पूछ रहे हैं। उम्मीद है, बुरा नहीं मानेंगे और जवाब देंगे।''
'अच्छ, तो ये बात है।'' नेताजी बोले, 'ऐसा है तो सुनो, मेरे पास ढेर-सा कालाधन है। मैं उसका उपयोग एक ऐसे विशाल विश्वविद्यालय के  नर्माण में लगाऊंगा, जिसमें पढऩे वाले कालेधन को कमाने की नाना विधि सीख सकें। काले धन क उपयोगिता पर शोध कार्य करें। विश्व भर में काले धन पर लिखी गई महत्वपूर्ण किताबों वाली लाइब्रेरी बनवाऊंगा। काला धन और सामाजिक न्याय, काले धन का उपयोग कब, कहाँ और कैसे करें, काले धन से राष्टका विकास नामक अनेक किताबें उपलब्ध हैं मरे पास। मैं तो सोच रहा हूँ अगर काला धन विकास विश्वविद्यालय (काविविवि) शुरू हो गया  तो मैं भी एकाध विषय पढ़ाऊंगा, जिससे बच्चों के  पास होने की सौ फीसदी गारंटी रहेगी।'
'एक तो हो गया विश्वविद्यालय, बाकी धन का इस्तेमाल किस मद में करेंगे ?'' हमारा दूसरा प्रश्न था।
'भइये, कालाधन जो हमने एकत्र किया है तो क्या यूं ही गंवा देने के लिए है ? अरे, उसको बचा कर रखेंगे। अगली बार जनता जब शरीर की पृष्ठभूमि पर लात मार कर कुर्सी से नीचे गिरा देगी, तब क्या करूंगा मैं ?'' नेताजी बोले, 'तब तुम काम नहीं आओगे, भाग जाओगे, जनता कम नहीं आएगी, सरकार काम नहीं आएगी, आएगा काम यही काला धन। सफेद हो कर बाहर आएगा और हमारे सुख चैन का सामान मुहैया कराएगा। हम नेता लोग इतनी 'दूरदृष्टि' वाले होते हैं कि भविष्य के लिए काला धन एकत्र करके रखते हैं।''
आगे बढऩे पर एक अफसर के पास पहुंचे। शानदार बंगले में बैठे अफसर ने हमें सवालिया निगाहों से देखा। हमने उनसे प्रश्न किया, 'अगर आपको काले धन का उपयोग करने की छूट मिले तो आप उसका उपयोग कैसे करेंगे ?''
अफसर ने धूर्तता से सवाल किया, 'हमारे पास तो कालाधन ही नहीं है तो हम कैसे बताएं कि काले धन का उपयोग के बारे हम क्या बताएं ?''
'फिर ये सब शानोशौकत कहाँ से आई  ?''
'ये....ये ? अरे, ये सब तो ऊपर वाले की देन है। छत फाड़ कर दे दिया उसने। हम लोगों की औकात से काफी दूर है कालाधन।'' अफसर ने मुसकराते हुए कहा।
'नही साब, हम लोगं से कुछ मत छिपाइये, हम लोग जासूस या पत्रकार नहीं हैं। हम तो बस यूं ही जिज्ञासावश पूछ रहे हैं।''
'अब आप जोर देते हैं तो बताए देता हूँ। मेरे पास एकाध करोड़ कालाधन है, मात्र। वो भी विदेशी बैंक में। इसमें तीन परसेंट हमारे एक नेताजी का है। जनता की खून पसीने की कमाई हड़पने में जो सुख हमको मिलता है, वह सुख किसी और को मिल ही नहीं सकता। हम तो जीवन भर ये सुख लूटते रहेंगे। जैसे किसी की इज्जत लूटते हैं, उसी तरह। काला धन को हम बाहर नहीं निकालेंगे। उल्टे इसकी मांग करने वाले को ही हम 'बाहर' कर देंगे। अरे, काला हो या सफेद, देश का ही धन तो है। यहाँ न सही, स्विस बैंक में जमा है। जब कभी देश पर संकट छाएगा, ले आएंगे।''
अफसर अपनी मस्ती में बोले जा रहा था। हमें लगा ये तमाम लोग काले धन रूपी संतान के बाप लोग हैं, जिनका गला दबाए बिना काला धन बाहर नहीं आ सकेगा। दीवाली तो इनकी ही है. कल भी रही, आज भी है, और आने वाले कल भी इनकी ही रखैल  रहेगी. इनके खिलाफ किसी न किसी को खडा होना पड़ेगा. लेकिन ऐसा करेगा कौन ? मै सोचता रह गया कि किसे दूं मुखालफत का ठेका? कुछ समझ में नहीं आया तो दीवाली के जगाम दीये को देखने लगा. इसी तरह का कोई दीपक दूर करेगा अँधेरा.
गिरीश पंकज

2 टिप्पणियाँ:

शरद कोकास October 14, 2009 at 11:10 AM  

बढ़िया व्यंग्य है गिरीश भाई । आपको दीपावली की बधाई -शरद

Anonymous October 14, 2009 at 12:36 PM  

एक व्यंगात्मक सच्चाई।
बढ़िया

बी एस पाबला

सुनिए गिरीश पंकज को

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