''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
&COPY गिरीश पंकज संपादक सदभावना दर्पण. Powered by Blogger.

महावीर वचनामृत-11

>> Tuesday, March 2, 2010


होली तो हो ली. कब तक उसके रंग में रहे. यह संभव भी नहीं. जीवन को दिशा देने वाले पडावों से गुजर कर ही हम नेकराह पर चल सकते है. गंतव्य भी यह है. नेकराह पर चलना, नेक मनुष्य बने रहना. तमाम तरह की मुसीबतों के बावजूद. महावीर भगवान् के सन्देश यही बताते है. ज्ञान की बाते तो अनेक बार कही गयी है .पर लोग कितना अमल में लाते है? फिर भी यह मान कर चला जाये कि कुछ न कुछ् तो असर होता ही है. बहरहाल, एक बार फिर पेश है महावीर-वचनामृत.... केवल सुधीपाठको के लिए,क्योंकि कुछ् ऐसे लोग भी है, जिनको ये सब पागलपन-पिछ्डापन ही लगता है, खैर...)

(98) 
क्षमा, सत्य, संयम तथा, त्याग और तप-कर्म,
ब्रह्मचर्य व शौच भी, ये सब उत्तम धर्म।।

(99)
क्षमा करें हम जीव को, महावीर की सीख।
बैर-भाव ना पालना, मित्र सभी का दीख।।

(100)
जो सच्चा माँ की तरह, गुरु जैसा ही वंद।
अपनों जैसा प्रिय रहे, सब रखते संबंध।।

(101)
समता औ संतोष से, लोभ स्वयं के धोय।
भोगों की लिप्सा नहीं, विमल हृदय वो होय।।

(102)
त्यागी वह जो भोग से, पीठ सदा ले फेर।
परिग्रहों से दूर हो, तप में करे न देर।।

(103)
शीलवान नारी सदा, बनती है यशवान।
देव तलक वंदन करें, वह ऐसी भगवान।।

(104)
एक दीप से जल उठे, देखो कितने दीप।
करे प्रकाशित गुरू सदा, बनकर एक सुदीप।।

(104)
जितने जन भी श्रेष्ठ हैं, उनको सम्यक-ज्ञान।
वे सच्चे जीतेंद्र हैं, जाय जगत पहचान।।

(105)
सम्यक-दृष्टि मिल गई, भय पास नही आय।
शंकाओं से मुक्त वह, विश्वजीत बन जाय।।

(106)
स्व-पूजा से जो परे, तारीफों से दूर।
भिक्षु-तपस्वी है वही, दुनिया में मशहूर।।

(107)
चाहें गर परलोक तो, ख्याति, लाभ, सत्कार।
ये सब चीजें व्यर्थ हैं, इसमें सुख, ना सार।।

(108)
तप, मुक्ति, दर्शन, चरित, क्षमा और प्रज्ञान।
इन सब को लेकर चलो, होय तभी उत्थान।
..............................................
इसबार महावीर-वचनामृत में एक दोहा माँ पर भी आया है.यह संयोग है,कि मेरे अनुज संजीव तिवारी ने अपने ब्लॉग आरम्भ में आज ही माँ पर केन्द्रित मेरा एक संस्मरण  प्रकाशित किया है.आप उसे भी देख सके तो कृपा होगी.  

9 टिप्पणियाँ:

संजय भास्‍कर March 2, 2010 at 10:01 PM  

बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

Kusum Thakur March 3, 2010 at 12:08 AM  

बहुत ही अच्छी लगी ....!!

कडुवासच March 3, 2010 at 4:47 AM  

...जीवन में अनुशरण योग्य अनमोल वचन/दोहे!!!

समयचक्र March 3, 2010 at 5:51 AM  

सुन्दर प्रेरक अमृत वचन ... धन्यवाद्.

Yogesh Verma Swapn March 3, 2010 at 7:06 AM  

anmol shabd.

Anonymous March 4, 2010 at 7:57 AM  

आपको बहुत बहुत धन्यवाद !हम सबको महावीर वचनामृत से रूबरू कराया !यह सबसे नया और सबसे
पुराना है ! धन्यवाद !

सुशीला पुरी March 8, 2010 at 1:23 AM  

बहुत खूब गिरीश जी ! उषा मेरी बहुत अच्छी सहेली है और इस बार दुर्ग मे आपसे मिलकर बहुत प्रभावित हुई ....लखनऊ मे आपका स्वागत करेंगे हम सब .

Ajay Saxena March 10, 2010 at 6:04 AM  

प्रेरक प्रस्‍तुति

Anonymous March 12, 2010 at 11:02 PM  

नमस्कार ! कैसे हैं ! प्रकृति पर एक कविता लिखी है !समय मिले तो देखिएगा !

सुनिए गिरीश पंकज को

  © Free Blogger Templates Skyblue by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP