जो गिर कर के संभालता है ...
>> Wednesday, March 31, 2010
साहित्यिक यात्राओं का अपना सुख है. कुछ नए साथियों से मुलाकातें हो जाती है. मित्र-सम्पदा बढ़ती है. ज्ञान बढ़ता है. दौलत काम नहीं आती लेकिन मित्ररूपी दौलत आपको सदा समृद्ध रखती है. इसलिए जैसे ही कही से बुलावा आता है तो मन नहीं मानता, निकल पड़ता हूँ प्रवास पर. स्वास्थ्य पर असर पड़ता है, लेकिन दिल नहीं मानता. खैर....अभी कर्णाटक के हुबली शहर से ७० किलोमीटर दूर 'गदग' के पास अवस्थित कसबे नरेगल (२५ कि .मी. दूर) के एक कालेज जाने का मौका मिला. ''साठोत्तरी हिंदी-कन्नड़ नाटको में राजनीतिक संवेदना'' विषय पर दो दिवसीय सेमीनार था. मुझे भी एक सत्र में हिन्दी नाटकों पर बोलना था. वहा महान हिन्दी सेवी डा. तिप्पेस्वामी एवं उपन्यासकार-नाटककार राजेन्द्रमोहन भटनागर जी जैसे लोगो से भेट हुई, कुछ सीखने को भी मिला. अनेक हिंदीतरभाषी हिन्दीसेवक भी मिले. लगा हमारी हिन्दी दक्षिण में भी तेजी के साथ स्वीकार्य हो रही है....अब मन की बात. एक सप्ताह बाद आपसे रू-ब-रू हो रहा हूँ, पेश है दो नयी ग़ज़ले, जो रास्ते में ही बनी. देखिये, शायद ठीक लगें.
(१)
जो गिर कर के संभलता है उसे इनसान कहते हैं
जो बस रोने लगे उसको सभी नादान कहते हैं
किताबें पढ़ के डिगरी पा गए आसान है यह तो
किताबों में नहीं मिलता उसे ही ज्ञान कहते हैं
जो बिकता चंद पैसों में वो है कमजोर फितरत का
कभी डिगता नहीं है जो उसे ईमान कहते है
ये तुमने क्या पिलाया है अभी तक प्यास है बाकी
बुझा दे प्यास जो दिल से उसी को पान कहते है
जो मिलता ही नहीं झुक कर कि है मुस्कान भी गायब
उसे ही इस ज़माने में नया शैतान कहते हैं
मुझे सब प्यार करते है मगर कुछ हैं नहीं करते
जिसे सब चाहते हैं उसको तो भगवान् कहते हैं
दिया दाएं से बाया हाथ भी कुछ जान ना पाया
यही इंसानियत पंकज इसी को दान कहते हैं
(२)
हो पाने की सच्ची ख्वाहिश मनचाहा मिल जाता है
मेहनत करने पर सहरा में फूल एक मुस्काता है
चलते-चलते थक मत जाना मंजिल कोई दूर नहीं
सुनो ध्यान से आवाजें कुछ कोई तुझे बुलाता है
वक्त पड़े तो मैंने देखा दौलत काम नहीं आयी
आँसू से केवल आँसू का हरदम सच्चा नाता है
सुख-दुःख क्या है जुड़वा भाई इनसे बचना मुश्किल है
इक जाता है तो दूजा भी बिना बुलाये आता है
कौन यहाँ अपना है अब तो स्वारथ के ही रिश्ते है
पैसा ही पैमाना पंकज पैसा भाग्यविधाता है
5 टिप्पणियाँ:
दोनों रचनाएँ सन्देश देती हुयी.....अच्छी अभिव्यक्ति
गिरीश भैया
गजलें बहुत ही सुहानी है
अब कुछ और भी सुनानी है
वही हम सोच रहे थे कि
आप कहां अन्तर्ध्यान हो गए?
अब कुछ दिन फ़िर ब्लागिंग हो जाए
सुंदर शब्दों के साथ.... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति....
किताबों में नहीं मिलता उसे ही ज्ञान कहते हैं
बहुत सही कहा है आपने !आंतरिक ज्ञान
कुछ और ही होता है !आपकी दोनों
रचनाएँ उत्कृष्ट है ! आभार !
पुन: स्वागत भईया.
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