कहने को आज़ाद हो गए किन्तु..
>> Saturday, April 3, 2010
पिछले दिनों केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने हिम्मत का काम किया और पूरे देश को विचार के लिए एक रास्ता भी दिखा दिया. उन्होंने भोपाल के एक दीक्षांत समारोह के दौरान अपना गाउन को उतार फेंका और दो टूक कहा कि ''यह औपनिवेशवाद का प्रतीक है. हमें इससे मुक्त होने की ज़रुरत है''. लेकिन मंत्रीजी, सिर्फ इसी चोंगे से ही मुक्त होने की ज़रुरत नहीं है, और भी चीज़ें है,जिसकी ओर आपको और देश को देखना है. 'नाटक-नौटंकी' से बात बनाती नहीं, हाँ, चर्चा ज़रूर हो जाती है. अभी भाषा के मसले में हमलोग गुलामी के चरम शिखर पर है. पुलिस के मामले में देखें तो यह अब तक अंगरेजों की बाप है. और हर तरह के अफसर...? कलंक है, धब्बे हैं, लोकतंत्र के माथे पर. रही बात जनप्रतिनिधियों की, तो इनमे फिरंगियों की आत्मा ही समा गयी है. इन सबने मिल कर लोकतंत्र को लूटतंत्र में तब्दील कर दिया गया है, ऐसे भयावह दौर में अगर एक मंत्री दीक्षांत समारोह का अपना काला लबादा उतारता है, तो इसका मतलब साफ़ है, कि उसके मन में परिवर्तन की ललक है. लेकिन यह ललक हर मोर्चे पर दिखनी चाहिए.तभी सच्चे लोकतंत्र का आगाज़ होगा. अभी जो लोकतंत्र है, वह लोकतंत्र का आभास-सा कराता है.सच्चा लोकतंत्र तो उस दिन आएगा, जब शरीफ लोग पुलिस के भय से मुक्त होंगे और गुंडे भयभीत रहेंगे. अभी उल्टा हो रहा है. गुंडे ऐश कर रहे है और शरीफों को जेल मिल जाती है.हक माँगने वाले लाठियां खाते है या गोलियां. इसलिए जयराम रमेश के बहाने हम लोग एक बार फिर सोचे, कि हम कहाँ खड़े है. इसी भाव-भूमि पर पेश है एक गीत...
कहने को आज़ाद हो गए किन्तु गुलामी जारी है
अपनी ही सरकार है लेकिन निर्मम-अत्याचारी है.
अपनी ही सरकार है लेकिन निर्मम-अत्याचारी है.
अभिव्यक्ति पर सौ-सौ पहरे, सच कहना दुश्वार हुआ.
जिसने भी प्रतिवाद किया है, उस पर अत्याचार हुआ.
लाठी, गोली, धाराएं सब, इक-इक बंधन भारी है...
कहने को आज़ाद हो गए किन्तु गुलामी जारी है..
जिसने भी प्रतिवाद किया है, उस पर अत्याचार हुआ.
लाठी, गोली, धाराएं सब, इक-इक बंधन भारी है...
कहने को आज़ाद हो गए किन्तु गुलामी जारी है..
चले गए अंगरेज़ मगर हम अंगरेजी के दास बने.
हो गए है आज़ाद मगर हम क्यों काले इतिहास बने.
मुक्त नहीं हो पाए कैसी ये अजीब बीमारी है.
कहने को आज़ाद हो गए किन्तु गुलामी जारी है.
मंत्री-संत्री पाखंडी सब, लूट-पाट करवाते हैं,
पुलिस यहाँ हड़काती रहती, अफसर मौज मनाते है.
जनता के हिस्से में केवल आँसू-नदिया खारी है.
कहने को आज़ाद हो गए किन्तु गुलामी जारी है.
जो प्रतीक हैं अंगरेजों के, उनको आज उतारें हम,
लोकतंत्र का सुन्दर चेहरा, मिलकर चलो संवारें हम.
सच्ची आजादी की खातिर, व्याकुल हर नर-नारी है.
अपनी ही सरकार है लेकिन निर्मम-अत्याचारी है.
कहने को आज़ाद हो गए किन्तु गुलामी जारी है
अपनी ही सरकार है लेकिन निर्मम-अत्याचारी है..
4 टिप्पणियाँ:
आपसे सहमत हूँ|
हमारे देश के जंगल आज भी उसी तरीके से मैनेज किये जा रहे हैं जैसे कि अंग्रेजों के जमाने में किये जाते थे| पीढीयों पुराने जंगलों को काटकर खाद और कीट नाशक डालकर सागौन की बाकायदा खेती की जाती है और फिर भी दस्तावेजों में वह जंगल ही कहलाता है|
बदलाव ऊपर से नीचे तक करना होगा|
बिल्कुल सही
यह ललक हर मोर्चे पर दिखनी चाहिए
बी एस पाबला
गिरीश जी बिल्कुल सटीक रचना सरकार ही ऐसी है की बेचारी जनता क्या करे कोई ना तो चैन से खा पा रहा है और ना कोई चैन से रह पा रहा है..सरकार, प्रशासन सब बस अपनी चला रहे है..ऐसे में जनता तो गुलाम ही है ना...बहुत बढ़िया रचना..हार्दिक बधाई
ये ढपोरशंख नेता....
संवेदनशील प्रस्तुति......
http://laddoospeaks.blogspot.com/
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