''सद्भावना दर्पण'

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ग़ज़ल / आज खिला है फूल डाल पर....

>> Thursday, April 8, 2010

बस्तर में नक्सलियों ने विचारधारा के नाम पर जो खूनी खेल खेला, उस पर और कुछ लिखने से कोई फायदा नहीं, फिर भी अन्याय के खिलाफ बार-बार कुछ कहना, लिखना, सड़कों पर उतरना..यह सब ज़रूरी है. यह देख कर लगता है, कि हम मुर्दे नहीं हुये है. रायपुर में आज कुछ लोगों ने मशाल जुलूस निकाला और नक्सलवाद हो बर्बाद के नारे लगाए. नक्सलवाद बर्बाद होगा या नहीं यह तो पता नहीं, फिलहाल लोग दहशत में है. और नक्सली शायद खुश होंगे, कि आज उन्होंने क्या तीर मारा है. व्यवस्था थर्रा गयी है. शरों में भेष बदल कर रहने वाले उनके नपुंसक-समर्थक उर्फ़ तथाकथित बुद्धिजीवी भी खुश है. जिन ब्लोगों में हिंसा पर चिंता की गयी, वहा अज्ञात टिप्पणियाँ करके अपनी बहादुरी भी दिखा रहे हैं. लेकिन भाई मेरे, तुमने अनजाने में ही कितने परिवारों का सुख छीन लिया है. इसके बारे में भी सोचो. जंगल में रह कर तुम लोग किसके लिए खून-खराबा कर रहे हो..? नक्सल हिंसा के पक्ष में कुछ बुद्धिजीवी भगत सिंग और चंद्रशेखर आज़ाद का जिक्र करने लगते है, अरे भाई, उस वक्त देश गुलाम था. हमारे वीर अगर किसी को मार रहे थे तो वे देश के बाहर के लोग थे. हम पर हुकूमत कर रहे थे. वैसे उस वक्त भी हिंसा के विरुद्ध आवाजें उठती थी. लेकिन क्या आज देश गुलाम है.? फिर अपनेही लोगों की हत्याएं क्यों..? मै यह मानता हूँ,कि इस सिस्टम में कुछ दिक्कते है और यह हमारे कारण ही है. इसे ठीक करना है. लेकिन हिंसा कोई समाधान नहीं. क्या तुम जो चाहते हो, वह पूरा नहीं हो सकता..? हो सकता है. चुनाव लड़ कर हम अच्छे जनप्रतिनिधि लोकसभा या विधानसभाओं तक भेज सकते है. यही एक रास्ता है परिवर्तन का. अनशन कर के हम बात मनवाने की कोशिशें कर सकते है. लेकिन ह्त्या करके हम व्यबस्था को औए भड़काते है. इस चक्कर में अनेक निर्दोष मारे जाते है. कल मैंने अपनी लम्बी कविता में इस सब बातों पर चर्चा की थी. और कितनी करुँ. बहरहाल, कुछ शेर उमड़े, उन्हें सुधी पाठकों तक पहुंचा रहा हूँ.

ग़ज़ल 

आज खिला है फूल डाल पर कल इसको मुरझाना है
जितने आये चले गए सब, हमको भी अब जाना है

नफ़रत, हिंसा, खून-खराबा ये हैवानी फितरत है
इंसां है तो उसके हिस्से केवल प्यार-खज़ाना है

छोटा-सा यह जीवन इसमें अगर-मगर कुछ ठीक नहीं
असफलता के पीछे केवल हरदम एक बहाना है

जो भी कुछ है पास तुम्हारे बांटो सब कुछ फानी है 
मिट्टी में हम मिल जायेंगे किसका यहाँ ठिकाना है.

तन से बढ़ कर मन हो सुन्दर इसको याद किया सबने 
रूप चन्द्रमा जैसे इसका तेज सुबह ढल जाना है.

पैसों पर जो इतराते हैं वे गफलत में रहते हैं 
खाली हाथ चले जायेंगे वे भी, यह समझाना है

जितना कुछ है पास तुम्हारे उतने से खुश हो पंकज 
हर पल एक नयी ख्वाहिश का जीवन ताना-बना है

3 टिप्पणियाँ:

Shekhar Kumawat April 8, 2010 at 8:05 AM  

जितना कुछ है पास तुम्हारे उतने से खुश हो पंकज
पल-पल एक नयी ख्वाहिश का जीवन ताना-बना है



http://kavyawani.blogspot.com/
shekhar kumawat

Smart Indian April 8, 2010 at 8:10 AM  

आपकी बात बिलकुल सही है. इन आतताइयों के पाप की इन्तेहा हो चुकी है. जिस मजदूर-किसान-आदिवासी की आड़ में यह अपने काले धंधे चला रहे हैं उसको तो पहले ही बर्बाद कर दिया, स्कूल, सड़कें, पटरियां और गर्दनें उड़ाकर.
अब नक्सलवाद हो बर्बाद के सिवा कोई विकल्प ही नहीं बचा है. आम नागरिकों को सरकार से दृढ इच्छा शक्ति की आशा है.

Udan Tashtari April 8, 2010 at 7:33 PM  

जो भी कुछ है पास तुम्हारे बांटो सब कुछ फानी है
मिट्टी में हम मिल जायेंगे किसका यहाँ ठिकाना है.


-शास्वत सच!

सुनिए गिरीश पंकज को

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