छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सलियों की हिंसा के कारण ७८ से ज़्यादा लोगों की जानें चली गयी. बेशक नक्सली अपनी सफलता का जश्न मना रहे होंगे. लेकिन मानवता खून के आँसू रो रही है. लोग सवाल कर रहे है कि यह कैसा नक्सलवाद है..? यह कैसी विचारधारा है..? ये कैसा माओवाद है जो खून से सींचा जा रहा है. परिवर्तन मै भी चाहता हूँ, भ्रष्टतंत्र बदलना चाहिए, सत्ता में काबिज़ लोगों को देखो तो खुद पर शर्म आती है. ये मक्कार नेता, ये हरामखोर अफसर...? इन सबकी जगह जेल है, लेकिन ये आज़ाद घूम रहे है. लेकिन क्या करें. हमने ही इन्हें चुना है. हमने ही इनको नौकरियाँ दी है. आज़ादी के बाद हम एक महान समतावादी समाज का निर्माण नहीं कर सके. सो, भुगत रहे है. लेकिन हम इनकी हत्याएं नहीं कर सकते. इनको झेलना ही हमारी नियति है. कोशिश करें कि आने वाली पीढी अच्छी निकले. पता नहीं निकलेगी भी कि नहीं, लेकिन हम हथियार नहीं उठाएंगे, प्रतिरोध करते हुए शायद इसी क्रूर व्यवस्था के हाथों मार भी दिए जाये, लेकिन हम शांति के साथ प्रतिवाद करेंगे. क्योकि हमारा रास्ता गांधी और विनोबा का रास्ता है. लेकिन कुछ लोग विचारधारा और परिवर्तान के नाम पर लोगों का खून बहाकर इंसानियत को कलंकित कर रहे है. ऐसे लोगों की घनघोर निंदा होनी चाहिए. नक्सलवाद को महिमामंडित करने वाले बुद्धिजीवी कहाँ है? वे जो नक्सलियों के साथ समय बिताते है, और उनको महानायक के रूप में पेश करके हत्यारों को प्रोत्साहित करते है. कहाँ हैं वे लोग..? हिंसा केवल हिंसा है. उसे किसी भी तर्क से जायज नहीं ठहराया जा सकता. हिंसा चाहे पुलिस की हो, साधारणजन की हो, गाय की हो, बकरे की हो या किसी और की. हिंसा सभ्य समाज के माथे पर कलंक है. (सरकारी हिंसा भी इसी कोटि में रखी जायेगी, जब वह आन्दोलनकारियों को गोलियों से भूनती है, या उन पर लाठियां बरसाती है) हिंसा कोई रास्ता नहीं. हिंसा केवल हिंसा को ही जन्म देती है. बेक़सूर लोग मारे जाते है. और हत्याओं का सिलसिला-सा शुरू हो जाता है. बहरहाल, बस्तर में जो कुछ हुआ, या इसके पहले भी हिंसा का जो खेल होता रहा है, उन सबके खिलाफ प्रतिवाद हमारा मानवीय कर्तव्य है. लिखते-लिखते एक कविता कौंध रही है. यह पीड़ा की कोख से पैदा हुई है. हम और क्या कर सकते है, सिवाय इस प्रतिरोध के. यह कविता अगर हिंसक दिमागों को थोड़ा भी विचलित कर सकी तो लगेगा कि मेरा लिखना सफल हुआ. हो सकता है मेरी यह कविता वहां तक भी न पहुँच पाए, जहाँ तक इसे पहुंचना चाहिए, फिर भी मुझे संतोष रहेगा कि एक कलमकार के नाते मैंने अपने कर्त्तव्य का निर्वहन किया है.कुछ लोग तो पढेंगे ही. न भी पढ़ें तो क्या, मुझे जो सूझा, वो लिखा. पेश है कविता-
हत्यारों को पहचान पाना अब बड़ा मुश्किल है.
अक्सर विचारधारा की खाल ओढ़े मंडराते रहते हैं राजधानियों में या फिर गाँव-खेड़े या कहीं और..
लेते हैं सभाएं कि बदलनी है यह व्यवस्था
दिलाना है इन्साफ...
हत्यारे बड़े चालाक होते हैं,
खादी के मैले-कुचैले कपडे पहन कर वे
कुछ इस मसीहाई अंदाज से आते है,
कि लगता है महात्मा गांधी के बाद सीधे
ये ही अवतरित हुए है इस धरा पर
कि अब ये बदल कर रख देंगे सिस्टम को
कि अब हो जायेगी क्रान्ति
कि अब होने वाला ही है समाजवाद का आगाज़
ये तो बहुत दिनों के बाद पता चलता है कि
वे जो खादी के फटे कुरते-पायजामे में टहल रहे थे
और जो किसी पंचतारा होटल में रुके थे
हत्यारे थे.
ये वे ही लोग हैं जो दो-चार दिन बाद
किसी का बहता हुआ लहू न देखे
साम्यवाद पर कविता ही नहीं लिख पते.
समलैंगिकता के समर्थन में भी खड़े होने के पहले ये एकाध 'ब्लास्ट'' मंगाते ही माँगते हैं
कहीं भी ..कभी भी....
हत्यारे विचारधारा के जुमले को
कुछ इस तरह रट चुकते हैं कि
दो साल के बच्चे का गला काटते हुए भी वे कह सकते है
माओ जिंदाबाद...
चाओ जिंदाबाद...
फाओ जिंदाबाद...
या कोई और जिंदाबाद.
हत्यारे बड़े कमाल के होते हैं
कि वे हत्यारे तो लगते ही नहीं,
कि वे कभी-कभी किसी विश्वविद्यालय से पढ़कर निकले
छात्र लगते है या फिर
तथाकथित ''फेक'' या कहें कि निष्प्राण-सी कविता के
बिम्ब में समाये हुए अर्थो के ब्रह्माण्ड में
विचरने वाले किसी अज्ञातलोक के प्राणी.
हत्यारे हिन्दी बोलते हैं
हत्यारे अंगरेजी बोल सकते हैं
हत्यारे तेलुगु या ओडिया या कोई भी भाषा बोल सकते है
लेकिन हर भाषा में क्रांति का एक ही अर्थ होता है
हत्या...हत्या...और सिर्फ ह्त्या...
हत्यारे को पहचानना बड़ा कठिन है
जैसे पहचान में नहीं आती सरकारें
समझ में नहीं आती पुलिस
उसी तरह पहचान में नहीं आते हत्यारे
आज़ाद देश में दीमक की तरह इंसानियत को चाट रहे
लोगों को पहचान पाना इस दौर का सबसे बड़ा संकट है
बस यही सोच कर हम गांधी को याद करते है कि
वह एक लंगोटीधारी नया संत
कब घुसेगा हत्यारों के दिमागों में
कि क्रान्ति ख़ून फैलाने से नहीं आती
कि क्रान्ति जंगल-जंगल अपराधियों-सा भटकने से नहीं आती
क्रांति आती है तो खुद की जान देने से
क्रांति करुणा की कोख से पैदा होती है
क्रांति प्यार के आँगन में बड़ी होती है,
क्रांति सहयोग के सहारे खड़ी होती है
लेकिन सवाल यही है कि दुर्बुद्धि की गर्त में गिरे
बुद्धिजीवियों को कोई समझाये तो कैसे
कि भाई मेरे क्रान्ति का रंग अब लाल नहीं सफ़ेद होता है.
अपनी जान देने से बड़ी क्रांति हो नहीं सकती
और दूसरो की जान लेकर क्रांति करने से भी बड़ी
कोई भ्रान्ति हो नहीं सकती.
लेकिन जब खून का रंग ही बौद्धिकता को रस देने लगे तो
कोई क्या कर सकता है
सिवाय आँसू बहाने के ?
सिवाय अफसोस जाहिर करने कि कितने बदचलन हो गए है क्रांति के ये ढाई आखर जो अकसर बलि माँगते हैं
अपने ही लोगों की.
कुल मिला कर अगर यही है नक्सलवाद
तो कहना ही पड़ेगा-
नक्सलवाद...हो बर्बाद
नक्सलवाद...हो बर्बाद
प्यार मोहब्बत हो आबाद
नक्सलवाद...हो बर्बाद
9 टिप्पणियाँ:
सच कहा गिरीश जी ! हत्यारों को पहचानना बड़ा मुश्किल है अब.....
आपकी कविता और आपके विचार से सहमत हूँ
नि:संदेह आपकी लेखनी ने आज आग उगली है
हत्यारों को पहचान पाना अब बड़ा मुश्किल है.
अक्सर वह विचारधारा की खाल ओढ़े मंडराते रहते है राजधानियों में या फिर गाँव-खेड़े या कहीं और..
लेते है सभाएं कि बदलनी है यह व्यवस्था
दिलाना है इन्साफ...
हत्यारे बड़े चालाक होते है,
खादी के मैले-कुचैले कपडे पहन
आपसे पूर्ण सहमती है. कभी खुलेआम और कभी बहाने से हत्यारों का महिमामंडन होते हम सब देख-सुन रहे हैं. अब उनके पाप की अति हो चुकी है और इसे यहीं रोकना होगा.
हत्यारों को पहचान पाना अब बड़ा मुश्किल है.
अक्सर वह विचारधारा की खाल ओढ़े मंडराते रहते है राजधानियों में या फिर गाँव-खेड़े या कहीं और..
---सही कह रहे है..कितना दुखद और अफसोसजनक है!
मन का उबाल है यह
मन तो हरेक का उबल रहा है
लेकिन क्रांतिकारी संगठन कैसे बनाया जाय ?
दुनियाभर के वादी(माओ खाओ फाओ नक्सल ...) हो गए हैं जो सिद्धांत को
ताक में रख हिंसा का सहारा लेते हैं.
मन में कम से कम आपने क्रांति ला दिया
नक्सलवादियों की इस हरकत ने हर भारतीय को झिझोड़ के रख दिया है ! आखिर यह मामला सुलझ क्यों नहीं रहा है ! नक्सलवाद समाप्त हो ! आपकी लेखनी इसी तरह कुकृत्यों पर बरसती रहे !
अफसोसजनक है!
जैसे पहचान में नहीं आती सरकारें
समझ में नहीं आती पुलिस
उसी तरह पहचान में नहीं आते हत्यारे
आज़ाद देश में दीमक की तरह इंसानियत को चाट रहे
लोगों को पहचान पाना इस दौर का सबसे बड़ा संकट है
....बेहद प्रसंशनीय अभिव्यक्ति!!!
girishji,
hatyaaron ko pahchaan paanaa mushkil jaroor hai par namumkin nahee. kawita aur lekh dono me wyakt bhaawna se main sau feesdee sahmat hun magar afsos jo khoon baha rahe hain unko kab samajh me yah baat aaegee.
ramesh sharma
sharmaramesh.blogspot.com
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