ग़ज़ल / जब भी आए गंदे लोग ....
>> Saturday, April 10, 2010
ग़ज़ल या शेर के पहले उसके बारे में कुछ लिखना औचित्यहीन होता है, क्योंकि ग़ज़ल का हर शेर अपना अर्थ खुद अभिव्यक्त कर देता है. फिर भी यह ब्लाग है, न इसलिए लगता है कि कुछ गुफ्तगू हो जाए. ललित शर्मा के मन को-पता नहीं किस बात से- ठेस लगी और उन्होंने भरी जवानी में संन्यास ले लिया, ब्लाग-लेखन से, तो मुझे लगा कि कुछ लिखनाचाहिये. उनके नाम एक अपील कर दी, कि लौट आओ...लौट आओ. मैंने ही नहीं अनेक ब्लागरों ने मेरा समर्थन किया और सबने यही कहा, कि ललित जल्द ही लौटेंगे. और मै जनता हूँ, कि लौटेंगे ही. बच के कहाँ जाओगे...ब्लाग से...ब्लागरों से...? ठीक है, कभी-कभी आराम कर लेना चाहिए, लेकिन यह लम्बा न रहे. आराम हराम होती है फ़ौजी के लिए. खैर, मै अपनी नयी ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ. कहा जा सकता है, कि अधिकाँश शेर ललित-प्रकरण के कारण ही जन्मे है. ये शेर ललित पर नहीं हैं,लेकिन ऐसे हादसे झेलने वाले हर इनसान के लिए हैं. उम्मीद है,कि सुधी ब्लागर भाई इस शेरों को भी प्यार देंगे.
झूठो की साजिश पे अक्सर
छिपकर रोए सच्चे लोग
जी लेते हैं कैसे लोग
फूल भी हैं तो कांटे लोग
अच्छे लोगो का टोटा है
नहीं दुखाना दिल को यारो
करें पाप यह भद्दे लोग
खुद से डरना खुदा से डरना
मगर कहां अब डरते लोग
स्वार्थ का रथ हांक रहे हैं
कहने को हैं अपने लोग
हिम्मत करके चलते जाओ
बन जाते हैं रस्ते लोग
गलत काम करके भी अकसर
बेशर्मी से हँसते लोग
वाह-वाह करते हैं खुद की
ऐसे होते टुच्चे लोग
हत्यारे पकडे जायेंगे
कहाँ जायेंगे बचके लोग
जिनका कुछ ईमान नहीं है
सबके दर पर झुकते लोग
भीतर-भीतर रो लेते हैं
बाहर-बाहर हँसते लोग
पंकज ऐरे-गैरे लोग
12 टिप्पणियाँ:
खुद से डरना खुदा से डरना
मगर कहां अब डरते लोग
....बेहद प्रभावशाली व प्रसंशनीय अभिव्यक्ति!!!
पंकज जी...बुरा कोई नहीं। पत्थर का जवाब पत्थर न हो तो मजा आता है।
अगर हम सामने वाले को पागल कहेंगे तो वे हमें समझदार तो न कहेगा।
वैसे काव्य बहुत दुरुस्त है।
बहुत ही सधे तरीके से आपने ऐसे लोगों की कारस्तानियों को उजागर किया है...
प्रकरण से तो अनभिज्ञ हूं, लेकिन ग़ज़ल पसंद आई गिरीश पंकजजी !
तमाम अश्आर आपकी गरिमा के अनुरूप हैं ।
छिपकर हमले करते रहते
कायर या फिर हिजड़े लोग
बहकावे में आ गए अकसर
होते हैं कुछ 'बच्चे' लोग
महफ़िल उखड गयी घुस आये
पंकज ऐरे - गैरे लोग
वाह !
bahut sahi abhivyakt kiya hai.
पूरी गज़ल-सच बयानी!!
"जब-जब आए गंदे लोग
हुए किनारे अच्छे लोग
झूठो की साजिश पे अक्सर
छिपकर रोए सच्चे लोग"
वाह पंकज भाई गज़ब के शेर हैं, आनद आ गया पढ़कर ...पूरे ब्लाग जगत की कहानी बयान करती यह सामयिक ग़ज़ल संग्रहणीय है ! शुभकामनायें !
!
आज के लोगों की क्या बखिया उधेडी है अपने...वाह..वा...
नीरज
धन्य है वे बेनामी जिन्हे आपने यह उम्दा गज़ल समर्पित की है ।
बहुत अच्छी रचना है ! तीखे तीर चलाये हैं ! अच्छा लगा !
आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।
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