नई ग़ज़ल/ जब अपना ही छलता है..
>> Monday, July 12, 2010
मैं ही क्या, बहुत-से लोग हैं जो अक्सर हताशा से दो-चार होते रहते है.यह जीवन है, यहाँ कदम-कदम पर छल है, धोखा-दिखावा है. पाखंड है. नकलीपन है. खुद्दारों का जीना कठिन है. उसे घुट-घुट कर जीना पड़ता है. जो लोग हमसे किसी कारण शत्रुता पाल बैठे है, वे धोखा दें तो समझ में आता है, लेकिन जिन्हें हम अपना समझते है, वे अगर छल करें तो दुःख होना स्वाभाविक है.दुनिया में झूठ का वर्चस्व है, फिर भी अँधेरे के बाद सूरज निकलता है. यह सूरज का निकलना ही हमें जीवंत बनाये रखता है. कुछ ऐसे ही भावों को विभिन्न शेरो में पेश करने की कोशिश में एक ग़ज़ल कह बैठा. देखें, शायद आपको कुछ शेर पसंद आ जाएँ.
जब अपना ही छलता है
दिल से लहू टपकता है
खुदगर्जी की ये हद है
अपना हमको खलता है
झूठी दुनिया में कैसे
सच्चा कोई संभलता है
पुण्य यहाँ लगता खोटा
पाप का सिक्का चलता है
जीवन का सच्चा दीया
विश्वासों से जलता है
एक सहारा है सपना
जीवन मेरा कटता है
बेचारा मिहनतवाला
केवल आखें मलता है
भाग्य हमारा जिद्दी है
यह न कभी सुधरता है
जिसमें जितनी चालाकी
उतनी अधिक सफलता है
नन्हीं-सी आँखों में इक
स्वप्न बड़ा-सा पलता है
बच्चे जैसा नादाँ मन
हर पल यहाँ मचलता है
बच्चे जैसा नादाँ मन
हर पल यहाँ मचलता है
ये गरीब का मौसम है
इक जैसा ही रहता है
धीरज रखना तू ''पंकज''
सूरज सुबह निकलता है.
15 टिप्पणियाँ:
धिरज रखना तू पंकज
सुरज सुबह निकलता है । आपका कोई जवाब नही , जब भी आते हो तो सबको रुला के ही जाते हो ।
अब कुछ हसने कि बात हो जाये . तो निचे टिप्पणी देने वाले साथियो के लिये एक संदेश
आपको जानकर अत्यन्त खुशी होगी कि आपके अपने तकनीकी ब्लाँग ईटिप्स अगले माह कि 30 तारीख को को ब्लाँग जगत मे एक साल का हो जायेगा । इसी अवसर पर हमने आप सब ब्लाँगर साथियो से विचार आमंत्रित कर रहे है । आपको ईटिप्स ब्लाँग कैसा लगता है ? क्या बदलाव होने चाहिये । कुछ शिकवा और सिकायत हो तो अवश्य लिखे ।
आपकी अपनी
ईटिप्स ब्लाग टीम
http://etips-blog.blogspot.com
बहुत ही शानदार गजल लिखी है आपने.
इस बात में कोई सन्देह नहीं कि आज के समय में ऐसी अनुभवनिष्ठ गजल लिखना, वाह! वाह!! साधुवाद और शुभकामनाएँ। गजल पढने के बाद ज्ञात हुआ कि गजल के लेखक गिरीश पंकज जी हैं। बहुत अच्छा लगा। कृपया अपना संवेदनशील सृजन जारी रखें, यह मानव समाज की स्वर्णिम धरोहर है। एक बार साधुवाद और शुभकामनाएँ।
आपका
-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा निरंकुश
सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) (जो दिल्ली से देश के सत्रह राज्यों में संचालित है।
इस संगठन ने आज तक किसी गैर-सदस्य, सरकार या अन्य किसी से एक पैसा भी अनुदान ग्रहण नहीं किया है। इसमें वर्तमान में ४३६४ आजीवन रजिस्टर्ड कार्यकर्ता सेवारत हैं।)। फोन : ०१४१-२२२२२२५ (सायं : ७ से ८) मो. ०९८२८५-०२६६६
E-mail : dr.purushottammeena@yahoo.in
तलाश जिन्दा लोगों की ! मर्जी आपकी, आग्रह हमारा!!
काले अंग्रेजों के विरुद्ध जारी संघर्ष को आगे बढाने के लिये, यह टिप्पणी प्रदर्शित होती रहे, आपका इतना सहयोग मिल सके तो भी कम नहीं होगा।
=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=
सागर की तलाश में हम सिर्फ बूंद मात्र हैं, लेकिन सागर बूंद को नकार नहीं सकता। बूंद के बिना सागर को कोई फर्क नहीं पडता हो, लेकिन बूंद का सागर के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। सागर में मिलन की दुरूह राह में आप सहित प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति का सहयोग जरूरी है। यदि यह टिप्पणी प्रदर्शित होगी तो विचार की यात्रा में आप भी सारथी बन जायेंगे।
ऐसे जिन्दा लोगों की तलाश हैं, जिनके दिल में भगत सिंह जैसा जज्बा तो हो। गौरे अंग्रेजों के खिलाफ भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, असफाकउल्लाह खाँ, चन्द्र शेखर आजाद जैसे असंख्य आजादी के दीवानों की भांति अलख जगाने वाले समर्पित और जिन्दादिल लोगों की आज के काले अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ बुद्धिमतापूर्ण तरीके से लडने हेतु तलाश है।
इस देश में कानून का संरक्षण प्राप्त गुण्डों का राज कायम हो चुका है। सरकार द्वारा देश का विकास एवं उत्थान करने व जवाबदेह प्रशासनिक ढांचा खडा करने के लिये, हमसे हजारों तरीकों से टेक्स वूसला जाता है, लेकिन राजनेताओं के साथ-साथ अफसरशाही ने इस देश को खोखला और लोकतन्त्र को पंगु बना दिया गया है।
अफसर, जिन्हें संविधान में लोक सेवक (जनता के नौकर) कहा गया है, हकीकत में जनता के स्वामी बन बैठे हैं। सरकारी धन को डकारना और जनता पर अत्याचार करना इन्होंने कानूनी अधिकार समझ लिया है। कुछ स्वार्थी लोग इनका साथ देकर देश की अस्सी प्रतिशत जनता का कदम-कदम पर शोषण एवं तिरस्कार कर रहे हैं।
आज देश में भूख, चोरी, डकैती, मिलावट, जासूसी, नक्सलवाद, कालाबाजारी, मंहगाई आदि जो कुछ भी गैर-कानूनी ताण्डव हो रहा है, उसका सबसे बडा कारण है, भ्रष्ट एवं बेलगाम अफसरशाही द्वारा सत्ता का मनमाना दुरुपयोग करके भी कानून के शिकंजे बच निकलना।
शहीद-ए-आजम भगत सिंह के आदर्शों को सामने रखकर 1993 में स्थापित-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)-के 17 राज्यों में सेवारत 4300 से अधिक रजिस्टर्ड आजीवन सदस्यों की ओर से दूसरा सवाल-
सरकारी कुर्सी पर बैठकर, भेदभाव, मनमानी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, शोषण और गैर-कानूनी काम करने वाले लोक सेवकों को भारतीय दण्ड विधानों के तहत कठोर सजा नहीं मिलने के कारण आम व्यक्ति की प्रगति में रुकावट एवं देश की एकता, शान्ति, सम्प्रभुता और धर्म-निरपेक्षता को लगातार खतरा पैदा हो रहा है! अब हम स्वयं से पूछें कि-हम हमारे इन नौकरों (लोक सेवकों) को यों हीं कब तक सहते रहेंगे?
जो भी व्यक्ति इस जनान्दोलन से जुडना चाहें, उसका स्वागत है और निःशुल्क सदस्यता फार्म प्राप्ति हेतु लिखें :-
(सीधे नहीं जुड़ सकने वाले मित्रजन भ्रष्टाचार एवं अत्याचार से बचाव तथा निवारण हेतु उपयोगी कानूनी जानकारी/सुझाव भेज कर सहयोग कर सकते हैं)
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा
राष्ट्रीय अध्यक्ष
भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यालय
7, तँवर कॉलोनी, खातीपुरा रोड, जयपुर-302006 (राजस्थान)
फोन : 0141-2222225 (सायं : 7 से 8) मो. 098285-02666
E-mail : dr.purushottammeena@yahoo.in
बढिया गजल है भैया।
अब उपर टिप्पणी के पहाड़े के नीचे
हमारी कही तो दब ही जाएगी:)
अच्छी गजल , और ईटिप्स ब्लाँग को पहली सालगिरह कि मुबारकबाद ।
बहुत बढ़िया ग़ज़ल...हर आम इंसान की दास्तान कहती हुई
सच-सच बयाँ करती ग़ज़ल लाल रंग में वाह..
जख्म वही ज्यादा रिसता है , देर से भरता है ...
जो किसी अपने ने दिया होता है ...
दूसरे का दगा तो कोस कर बताया जा सकता है मगर अपनों की बेवफाई का तो जिक्र भी नहीं किया जा सकता ...बस सिर्फ एक घुटन ...
मगर फिर भी सूरज का इन्तजार तो कायम है ...उगेगा ही धीरे-धीरे
ग़ज़ल दिल को छू गयी..!
बेहद उम्दा पोस्ट के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं!
आपकी चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं
नन्हीं-सी आँखों में इक
स्वप्न बड़ा-सा पलता है
बेहतरीन !
जब अपना ही छलता है
दिल से लहू टपकता है
खुदगर्जी की ये हद है
अपना हमको खलता है
झूठी दुनिया में कैसे
सच्चा कोई संभलता है
पुण्य यहाँ लगता खोटा
पाप का सिक्का चलता है
जीवन का सच्चा दीया
विश्वासों से जलता है
एक सहारा है सपना
जीवन मेरा कटता है
बेचारा मिहनतवाला
केवल आखें मलता है
भाग्य हमारा जिद्दी है
यह न कभी सुधरता है
जिसमें जितनी चालाकी
उतनी अधिक सफलता है
नन्हीं-सी आँखों में इक
स्वप्न बड़ा-सा पलता है
बच्चे जैसा नादाँ मन
हर पल यहाँ मचलता है
ये गरीब का मौसम है
इक जैसा ही रहता है
धीरज रखना तू ''पंकज''
सूरज सुबह निकलता है.
har sher maanikhez....dil ko chhu gayi gazal rote rote
इस ग़ज़ल का हर शेर अपने आप में मुकम्मल ग़ज़ल है भईया.
आपको प्रणाम.
मनुष्य नाम की प्रजाति में दुर्लभ रह गए ऐसे गुण बहुधा कम ही देखने को मिलते हैं.आप जैसे लोग हैं कि हमजैसे लोग जीवित हैं और आश्वस्त हैं.सच्चे लोग ही अमर रचना करते हैं.आपकी ग़ज़ल के हरेक शेर किनऔर कैसी प्रसव वेदना के बाद लब पर आकर कागज़ पर उतरे होंगे..आम लोगों को आज महसूस कर पाना बहुत मुश्किल है.ये तो सिर्फ भोक्ता ही जानता है.
पुनः :ग़ज़ल केलिए शुक्रिया..
Post a Comment