फिर एक नई ग़ज़ल/ कब पहनेगी कपडे कुरसी, कब आएगी और व्यवस्था ?
>> Thursday, July 15, 2010
है कितनी कमजोर व्यवस्था
जिसका ओर न छोर...व्यवस्था
फ़ैल रहा है खूनी पंजा
फ़ैल रहा है खूनी पंजा
लगती आदमखोर व्यवस्था
अब ग़रीब के मुँह से हाए
छीन रही है कौर व्यवस्था
हक मांगो तो लाठी-गोली ?
उफ़ ये सीनाजोर व्यवस्था
नेता, अफसर, व्यापारी सब
किन हाथों में डोर व्यवस्था
कदम-कदम पर लूट रही है
अपने घर में चोर व्यवस्था
काम-धाम कुछ भी ना होता
केवल करती शोर व्यवस्था
अब तुझको तो हम बदलेंगे
जनता हो गई बोर व्यवस्थ
कितना हाहाकार मचा है
देखो चारों ओर व्यवस्था
हाँक रही क्या समझ गई है
लोकतंत्र को ढोर व्यवस्था?
कब पहनेगी कपडे कुरसी
कब आएगी और व्यवस्था
जैसा वो चाहे बस जीयो
गुंडों-सी घनघोर व्यवस्था
देख आँसुओं को भी बढ़ कर
मुद्दों पर हो गौर व्यवस्था
जन के मन में राज करे जो
आए वो सिरमौर व्यवस्था
पूछ रहे हैं लोग हाँफ़ते
कब पाएँगे ठौर व्यवस्था
कहती है तुम मरना सीखो
ऐसी है मुँहजोर व्यवस्था
वक्त हमारा भी आएगा
देंगे हम झकझोर व्यवस्था
देश चले ज्यों एक कंपनी
लगती डायनासोर व्यवस्था
लोकतंत्र में प्राण फूँक दो
नाचे मन का मोर व्यवस्था
अंधकार में देश फँसा है
कब आएगी भोर व्यवस्था?
18 टिप्पणियाँ:
बेहद उम्दा रचना ...एकदम सटीक !
गिरिश पंकज जी बहुत ही अच्छी कविता, किस किस लाईन की तारीफ़ करे...आप ने पुरी कविता मै देश के आज के सही हाल व्यक्त किये है, धन्यवाद
आदमखोर व्यवस्था kee khoob pol kholee aapne..lekin besharmee jab aathaas kare to ham sabhi kya करें..
हमज़बान की नयी पोस्ट पर प्रभाष जोशी से संवाद करें.
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/07/blog-post_15.html
तबही मैं सोचता था कि
आदमी कहां गायब हो जाते हैं?
अब पता चला है भैया।
आदमखोर भेड़िया घुमता है शहर में।
आभार
गिरिश पंकज जी
शानदार पोस्ट।
आभार।
... अदभुत रचना, बहुत बहुत बधाई!!!
बेहतरीन, स्तंभित हूँ मैं ... एक एक शेर जैसे एक एक नश्तर है ...
बधाई !
हर शेर लाजवाब है मगर ये शेर ? क्या कहूंम निशब्द हूं
फ़ैल रहा है खूनी पंजा
लगती आदमखोर व्यवस्था
अब ग़रीब के मुँह से हाए
छीन रही है कौर व्यवस्था
हक मांगो तो लाठी-गोली ?
उफ़ ये सीनाजोर व्यवस्था
व्यवस्था पर गहरी चिट। धन्यवाद।
गीत अच्छा है ।
"नेताओ मे अपना करम ढूढते हैँ
आतंकवाद के नाम पर वहम ढुढते हैँ
जब कुछ नही मिलता ईन पुलिस वालोँ को , तो किसी गरीब बुढीया कि गठरी मे बम ढूढते हैँ "
अब ग़रीब के मुँह से हाए
छीन रही है कौर व्यवस्था
हाँक रही क्या समझ गई है
लोकतंत्र को ढोर व्यवस्था?
वक्त हमारा भी आएगा
देंगे हम झकझोर व्यवस्था
अंधकार में देश फँसा है
कब आएगी भोर व्यवस्था?
पंकज भाई !
आपकी बेबाक और धारदार कलम को सलाम ...
पहली बार आना हुआ और पहली बार ही झकझौर देने वाली रचना से परिचय हुआ....
सर, उपलबिधयां यूं ही नहीं मिलती, आपने सिद्ध कर दिया...मेरी भी मुबारकबाद कुबूल फर्माएं...मौका मिले तो मेरे गरीबखानेपर भी आएं...
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शानदार पोस्ट।
व्यवस्था पर गहरी चोट करती अच्छी गज़ल...
नई उपमाओं के साथ गजल लिखी है आपने.
शानदार बन पड़ी है.
गज़ब गज़ब गज़ब की प्रस्तुति।
बहुत जानदार/शानदार!!
फ़ैल रहा है खूनी पंजा
लगती आदमखोर व्यवस्था..
गिरीश जी ,
व्यवस्था के विकृत रूप का बखूबी वर्णन किया है आपने। निश्चित ही अफ़सोस होता है इस व्यवस्था पर और इसके ठेकेदारों पर। हजारों दिलों में इस व्यवस्था से असंतोष है। शायद कभी तो क्रांति रंग लाएगी ?
अब ग़रीब के मुँह से हाए
छीन रही है कौर व्यवस्था
जिस तरह से मँहगाई बढ़ती जा रही है उसे देख कर ये त कहना ही पड़ेगा की ग़रीब जनता के मुँह से कौर छीना जा रहा है बेचारे चाह कर भी वो चीज़ नही खरीद पाते जो चाहते है अपने इच्छाओं को समेटना पड़ता है बाकी लोगों के तो मौज है..
चाचा जी सुंदर सुंदर भाव प्रस्तुत करती हुई एक बेहतरीन ग़ज़ल....प्रणाम चाचा जी
vayavstha ko lekar bahut sateek baaten aur kataksh ..
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