''सद्भावना दर्पण'

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नई ग़ज़ल/फ्लैटों, मालों का 'इंडिया' लेकिन अपना देश कहाँ?

>> Thursday, July 29, 2010

मैं स्वतन्त्र लेखक-पत्रकार हूँ. संघर्ष मेरे जीवन का पाथेय-सा बन गया है, क्या करुँ. किसी तरह अपना छोटा-सा दफ्तर बनाया है. जिसका मालिक, चपरासी, मैसेंजर सबकुछ मै हूँ. मैंने अपने कार्यालय में प्रख्यात चिन्तक 'सर एडवर्ड कोक' का एक कथन चस्पा करके रखा है, कि ''अपना स्वयं का कच्चा मकान भी व्यक्ति के स्वाभिमान की रक्षा एक किले की तरह करता है.'' दस साल से इस कथन को देख रहा हूँ, मगर आज कुछ ऐसी प्रेरणा जगी, कि कुछ शेर बन गए. आज अपने देश मे कितने ही लोग हैं, जो खुले आसमान के नीचे जीवन बिताने पर मजबूर है. हर बड़े शहर में ये मंज़र देखे जा सकते है. पता नहीं इन लोगों का भविष्य क्या है. मगर बहुत से खुशकिस्मत ऐसे भी है, जो क़र्ज़ लेकर किसी तरह घर बना ही लेते है. कुछ अभागे जीवन भर किराये के घर मे ही रहने के लिये अभिशप्त रहते है. ऐसे ही अनेक लोगों की भावनाओं को स्वर देने वाले विभिन्न शेरो से बनी ये ग़ज़ल आपकी सेवा में हाज़िर है...

कैसा भी है कच्चा-पक्का जिसका एक मकान है
स्वाभिमान का रक्षक है ये, बिल्कुल किले समान है

होंगे सबके महल-दुमहले अपना ये छोटा-सा घर
तुम खुश हो तो अपने चेहरे पर भी इक मुसकान है

जितना अपने हिस्से आया प्रभु की प्रेम-प्रसादी है
लालच का तो अंत नहीं है, लालच इक शैतान है

वे हैं सचमुच किस्मतवाले जिनको छत मिल जाती है
जिनका घर फुटपाथ बना, उनका मालिक भगवान् है

मेहनत करके दौलत पाई फिर थोड़ा संतोष किया 
उसके जीवन में सुख रहता, अधरों पर मुस्कान है.

फ्लैटों, मालों का 'इंडिया' लेकिन अपना देश कहाँ?
बदहाली में जीने वाला भी इक हिन्दुस्तान है.

दौलत पा कर जो झुक जाये वह नायक बन जाता है
लेकिन वो खलनायक जिसमे रत्ती भर अभिमान है

कोई तरस रहा है घर को, और उधर यह आलम है 
किसी के हिस्से गाँव-शहर या पूरा इक बागान है. 

कोई तरस रहा रोटी को कोई फेंक रहा जूठन
भूखे को भी समझो भाई, वह भी इक इनसान है.

जमा किया गर हद से ज्यादा पंकज इक दिन जायेगा
कभी बीमारी कभी डकैती सब दिन कहाँ समान है

16 टिप्पणियाँ:

honesty project democracy July 29, 2010 at 8:52 AM  

बहुत ही सुन्दर और सार्थक पोस्ट ,इमानदार और स्वाभिमानी हमेशा दुःख भोगते हैं क्योकि इस चोर लूटेरों की बस्ती में उससे लड़ते हुए उसे अपनी सुध ही नहीं रहती इमानदारों को और यही जीवन है इस राह पर अगर सबलोग एकजुट होकर चलेंगे तब जाकर इन चोर लूटेरों से छुटकारा मिलेगा ...

राजीव तनेजा July 29, 2010 at 10:09 AM  

सुन्दर...सार्थक एवं सटीक रचना

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') July 29, 2010 at 10:14 AM  

वाह भईया !! ऐसी उम्दा ग़ज़ल... आप सहज और सरल लफ़्ज़ों में कितनी गहरी बात कह जाते हैं. आपको प्रणाम.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) July 29, 2010 at 10:58 AM  

बहुत सुंदर ग़ज़ल... आपने निःशब्द कर दिया...

संगीता स्वरुप ( गीत ) July 29, 2010 at 12:15 PM  

फ्लैटों, मालों का 'इंडिया' लेकिन अपना देश कहाँ?
बदहाली में जीने वाला भी इक हिन्दुस्तान है

सत्य को उजागर करती और स्वाभिमानी की दशा की ओर इंगित करती सुन्दर रचना ....

شہروز July 29, 2010 at 2:38 PM  

,इमानदार और स्वाभिमानी हमेशा दुःख भोगते हैं .....aap ka andaz bilkul bhawanee bhai wala lagta hai.kis pankti ko saamne rakhun har panki khula sooraj hai ..jismein sabhi nange hain.

विनोद कुमार पांडेय July 29, 2010 at 7:31 PM  

भारत में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो खुले आसमान के नीचे घर बिताने को मजबूर हैं..आपकी ग़ज़ल पूरे समाज को झकझोरती हुई एक बेहतरीन ग़ज़ल आदमी की सोच को उजागर करती हुई....नतमस्तक हूँ चाचा लाज़वाब रचना....बधाई

वाणी गीत July 29, 2010 at 8:24 PM  

जितना अपने हिस्से आया प्रभु की प्रेम-प्रसादी है
लालच का तो अंत नहीं है, लालच इक शैतान है...

मेहनत करके दौलत पाई फिर थोड़ा संतोष किया
उसके जीवन में सुख रहता, अधरों पर मुस्कान है...

काश के लोग यह समझ सके ..मोह माया के लालच में इधर उधर ना भटकें ...!

Dr. Zakir Ali Rajnish July 29, 2010 at 10:57 PM  

आपकी पीडा जायज है।
--------
पाँच दिवसीय ब्लॉगिंग कार्यशाला में तरह-तरह के साँप।

The Straight path July 30, 2010 at 12:08 AM  

बहुत सुंदर ग़ज़ल...

arvind July 30, 2010 at 5:17 AM  

मेहनत करके दौलत पाई फिर थोड़ा संतोष किया
उसके जीवन में सुख रहता, अधरों पर मुस्कान है.
...............बहुत ही सुन्दर और सार्थक पोस्ट

Satish Saxena July 30, 2010 at 8:22 PM  

बहुत सरल भाव से लिखी यह रचना दिल को छू लेने में समर्थ है पंकज भाई !शुभकामनायें !

कडुवासच July 31, 2010 at 10:02 PM  

होंगे सबके महल-दुमहले, अपना ये छोटा-सा घर
तुम खुश हो, तो अपने चेहरे पर भी इक मुसकान है
.... behatreen !!!

Anonymous August 2, 2010 at 12:44 AM  

फ्लैटों, मालों का 'इंडिया' लेकिन अपना देश कहाँ?
इस कविता का व्यंग्य अत्यंत मारक और तकलीफदेह है !बम्बई मद्रास कलकत्ता का नाम बदल गया इण्डिया कब भारत बनेगा ! अगर ये हमारा भारत होता तो एम्बुलेंस जल्दी पहुंचता पिज्जा नहीं ! आपकी कविता में व्यंग्य का तीखापन नही मरहम का ठंढापन है ! आभार !

खबरों की दुनियाँ August 2, 2010 at 7:03 PM  

बहुत खूब भईया जी । बधाई
आज चर्चा मंच पर आपके दर्शन हुए , खुशी हुई ।
- आशुतोष मिश्र , रायपुर

شہروز August 2, 2010 at 11:26 PM  

अपने लेख की अंतिम किस्त पढ़ें
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post.html

सुनिए गिरीश पंकज को

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