''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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नवगीत/ फिर भी जीते रहे ज़िंदगी, कभी न टूटे हम..

>> Monday, July 26, 2010

कुछ दिनों से ऐसी कुछ अस्त-व्यस्तता थी, कि मैं कुछ पोस्ट ही नहीं कर पाया. आज कुछ समय मिला, तो हाजिर हूँ अपने एक नवगीत के साथ. आशा है, पसंद आएगा.


नवगीत

मिली विफलताएँ कुछ ज्यादा,
उपलब्धि है कम.
फिर भी जीते रहे ज़िंदगी,
कभी न टूटे हम..

हमने देखा गूंगे-बहरे,
इधर-उधर स्थापित.
और बोलने वाले थे जो,
हुए सदा विस्थापित.
जिनको हक मिलना था उनको,
नहीं मिला हरदम...

लोग बहुत चालाक हो गए,
समझ न पाए आप.
वक्त पड़ा तो फ़ौरन बोले,
गधा हमारा बाप.
चाटुकार हो गयी हवाएँ,
नाच रहीं छमछम.

स्वाभिमान खुदकशी कर गया,
जीना हुआ फिजूल.
काँटों के हिस्से में आये,
सुन्दर, कोमल फूल.
चरणों पर गिरने वाले ही,
अब हैं सर्वोत्तम...

जाने कब होगा सर्जक का,
बिन बोले सम्मान.
अभी यहाँ पर कदम-कदम पर,
बस केवल अपमान.
अंधियारे का अभिनन्दन है,
उजियारे का गम...

12 टिप्पणियाँ:

arvind July 26, 2010 at 10:43 PM  

हमने देखा गूंगे-बहरे,
इधर-उधर स्थापित.
और बोलने वाले थे जो,
हुए सदा विस्थापित.
जिनको हक मिलना था उनको,
नहीं मिला हरदम...
....bahut sundar evam saarthak geet.badhaai.

Anonymous July 26, 2010 at 11:44 PM  

अरे वाह, गूंगे बहरे वाली बात अच्छी लगी ।

vandana gupta July 27, 2010 at 12:05 AM  

जाने कब होगा सर्जक का,
बिन बोले सम्मान.
अभी यहाँ पर कदम-कदम पर,
बस केवल अपमान.
अंधियारे का अभिनन्दन है,
उजियारे का गम...

बस यही तो गम है मगर फिर भी वो सुबह कभी तो आयेगी।

संगीता स्वरुप ( गीत ) July 27, 2010 at 12:22 AM  

कभी तो रौशनी आएगी.....बहुत सुन्दर भाव गीत

शिवम् मिश्रा July 27, 2010 at 1:48 AM  

बहुत बढ़िया और सार्थक रचना ! आभार !

संगीता स्वरुप ( गीत ) July 27, 2010 at 1:48 AM  

आपकी यह प्रस्तुति कल २८-७-२०१० बुधवार को चर्चा मंच पर है....आपके सुझावों का इंतज़ार रहेगा ..


http://charchamanch.blogspot.com/

विनोद कुमार पांडेय July 27, 2010 at 9:17 AM  

कमाल की रचना चाचा जी....कुछ दिन ग़ज़ल पेश करने के बाद आज भी गीत के रूप में एक नायाब रचना....सुंदर गीत..बधाई चाचा जी

Subhash Rai July 27, 2010 at 11:37 AM  

गिरीश भाई बहुत अच्छी रचना है, एक बन्द मेरी ओर से जोड़ लीजिये----

कार पड़ोसी ले आया है
अब जीना दूभर
बीवी कहती तुम भी लाओ
हाँ, कर्जा लेकर
खड़ी रहेगी दरवाजे पर
चौपहिया हरदम.....

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार July 27, 2010 at 7:04 PM  

गिरीश पंकज जी
नमस्कार !
दोहे , कुंडलियां , गीत , ग़ज़ल , … और अब इनके साथ साथ नवगीत !
यह है मां सरस्वती का अपने वरद - पुत्रों को उपहार !
वरना डींगें हांकते पाए जाने वाले छद्म रचनाकारों को दो दो , तीन तीन महीनों में भी रो - पिट कर मात्र चार पंक्तियां तुकबंदी की मिलती हैं , और उसके दम पर भी वे गाल बजाते पाए जाते हैं ।
आपने साबित कर दिया कि मात्र पंकज कहलाना ही कमल हो जाना नहीं होता । कमल होने के लिए साधना द्वारा वरदा का वरदान पाना होता है ।
प्रसंगवश कह गया यह तो …वरना मेरे मन की बात तो आपका पूरा नवगीत स्वयं कह रहा है …

हमने देखा गूंगे-बहरे,
इधर-उधर स्थापित.
और बोलने वाले थे जो,
हुए सदा विस्थापित.


चाटुकार हो गयी हवाएं,
नाच रहीं छमछम.


चरणों पर गिरने वाले ही,
अब हैं सर्वोत्तम...


जाने कब होगा सर्जक का,
बिन बोले सम्मान.
अभी यहां पर कदम-कदम पर,
बस केवल अपमान.
अंधियारे का अभिनन्दन है


बहुत अच्छा नवगीत है भाईजी !

मुक्त हृदय से बधाइयां !
इस रंग को जारी रखें …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') July 27, 2010 at 9:54 PM  

भईया प्रणाम, आपकी इस खूबसूरत रचना पर आपकी ही शैली में टीप लिखने की इच्छा हो रही है.. (सूरज के समक्ष दीप जलाने जैसी हिमाक़त के लिए मुआफी की दरख्वास्त सहित)
"आपकी सब सुन्दर रचना हैं,
साहित्य जगत की शान
किसमें ताक़त जो कर पाए,
स्याही का अपमान.
सूर्य गगन में, धरा में सर्जक,
हारा दोनों से तम... "

Unknown July 28, 2010 at 6:29 AM  

जाने कब होगा सर्जक का,
बिन बोले सम्मान.
अभी यहाँ पर कदम-कदम पर,
बस केवल अपमान.
अंधियारे का अभिनन्दन है,
उजियारे का गम...

achchha laga

सहज साहित्य August 10, 2010 at 12:25 AM  

भाई पंकज जी लाजवाब नवगीत है । मैंने संजोकर रख लिया है ।

सुनिए गिरीश पंकज को

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