ग़ज़ल/ सारे तथाकथित....
>> Tuesday, August 10, 2010
यह ग़ज़ल उन मित्रों के लिये हैं जो बहुत अच्छे इनसान है मगर तथाकथित लोगों से हैरान-परेशान है. आज हम यही देख रहे है हर कहीं तथाकथित लोग ही नायक बने हुए है. फिर भी....मैं मानता हूँ कि एक दिन सच जीतता है. प्रतिभा का सम्मान मिलता है. तो....प्रस्तुत है.. आपके जैसे अच्छे लोगों के मन पीड़ा को स्वर देने वाले कुछ शेर.....
यहाँ-वहाँ अब छाये दिखते सारे तथाकथित
भरे हुए हैं सत्ता के गलियारे तथाकथित
जाने कितने सपनों की हत्याएं कर डालीं
घूम रहे हैं मस्ती में हत्यारे तथाकथित
नकली सिक्के यहाँ चल रहे ये कैसा बाज़ार
असली हो गए है अब तो बेचारे तथाकथित
हमने तुमको प्यार किया पर तुम तो बदल गए
क्या मालूम था निकलोगे तुम प्यारे तथाकथित
मुझ तक आने से पहले उजियारे लुप्त हुए
भेजे थे चन्दा ने हमको तारे तथाकथित
बहुत दिनों तक खून के आँसू रोई सच्चाई
आखिर इक दिन वही हुआ कि हारे तथाकथित
20 टिप्पणियाँ:
हार इनकी ही होनी चाहिए ! शुभकामनायें पंकज भाई
आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।
बहुत सुंदर ओर उम्दा रचना.धन्यवाद
सत्य को कहती उम्दा गज़ल ..
गिरीश पंकज जी
अच्छे लोगों के मन पीड़ा को स्वर देने वाले अश्आर के लिए शुक्रिया !
यहां-वहां अब छाये दिखते सारे तथाकथित
भरे हुए हैं सत्ता के गलियारे तथाकथित
मुझ तक आने से पहले उजियारे लुप्त हुए
भेजे थे चन्दा ने हमको तारे तथाकथित
अंतर्निहित इशारे बहुत कुछ कह रहे हैं …
अच्छी रचना !
बधाई !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
''चार लोग' क्या कहेंगे' पर किसी की पुरानी उक्ति है, 'मैं उन चार लोगों की तलाश में हूं, मिल जाएं तो सारी समस्या एक साथ ही निपटा दूं' आपकी रचना पढ़कर लगा कि वे 'चार' आजकल एक में समाहित होकर 'तथाकथित' बन गए हैं. बधाई.
बेहतरीन!
गिरीश जी कमाल किया है आपने...अनूठा रदीफ़ प्रस्तुत किया है और निभाया भी खूब है...
नीरज
भैया आप निसदेह जनकवि हैं.आपकी गजलों और गीतों पर अलग से लिखने की ज़रुरत समझता हूँ.बस समय ने साथ दिया .यूँ तो यह ग़ज़ल मुकम्मल है.लेकिन यह शेर ख़ास ध्यान खींचते हैं.
यहां-वहां अब छाये दिखते सारे तथाकथित
भरे हुए हैं सत्ता के गलियारे तथाकथित
मुझ तक आने से पहले उजियारे लुप्त हुए
भेजे थे चन्दा ने हमको तारे तथाकथित
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शमा -ए -हरम हो या दिया सोमनाथ का
http://saajha-sarokaar.blogspot.com/2010/08/blog-post.html
बहुत दिनों तक खून के आँसू रोई सच्चाई
आखिर इक दिन वही हुआ कि हारे तथाकथित .....बेहतरीन!
्सुन्दर अभिव्यक्ति।
लाजवाब गज़ल। शुभकामनायें
उम्दा रचना..बधाई.
गिरीश भाई बहुत अच्छी गजल. आप ने विष्णु खरे को जैसी लताड़ लगायी है, उसका संकेत इस गजल में देख रहा हूं. इस मामले पर हम सबको एकजुट होकर प्रहार करने की जरूरत है.
भईया ग़ज़ल के हर शेर में जाने कितने इशारे गुम्फित कर दिए हैं. प्रणाम और बधाई.
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हमने तुमको प्यार किया पर तुम तो बदल गए
क्या मालूम था निकलोगे तुम प्यारे तथाकथित
bahut khoob..
Meri Nayi Kavita par aapke Comments ka intzar rahega.....
A Silent Silence : Naani ki sunaai wo kahani..
Banned Area News : Fears of epidemic after mudslide in China
क्या बात है !! बहुत खूब!
.हम आपके साथ हैं.
समय हो तो अवश्य पढ़ें.
विभाजन की ६३ वीं बरसी पर आर्तनाद :कलश से यूँ गुज़रकर जब अज़ान हैं पुकारती http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_12.html
पंकज जी आपका जवाब नही ,
अच्छी प्रस्तुती के लिये आपका आभार ।
खुशखबरी
हिन्दी ब्लाँग जगत मे ब्लाँग संकलक चिट्ठाप्रहरी की शुरुआत कि गई है । आप सबसे अनुरोध है कि चिट्ठाप्रहरी मे अपना ब्लाँग जोङकर एक सच्चे प्रहरी बनेँ , यहाँ चटका लगाकर देख सकते हैँ
इन तथाकथितों के बहाने आपने बहुत बढिया गजल कह दी, बधाई।
………….
सपनों का भी मतलब होता है?
साहित्यिक चोरी का निर्लज्ज कारनामा.....
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