''सद्भावना दर्पण'

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नई ग़ज़ल/केवल सर्जक ही इक दिन स्वर्णिम इतिहास बनाते हैं

>> Monday, October 11, 2010

पहले ज़ख्म दिया करते हैं फिर थोड़ा मुसकाते हैं
ऐसे ही कुछ लोग यहाँ केवल शैतान कहाते हैं

अपने दुर्गुण देख न पाए कोस रहे हैं दुनिया को
ऐसे ही नाकारे इक दिन मिटटी में मिल जाते हैं.

तन से वह तो होगा सुन्दर लेकिन मन से काला है
तन-मन जिनका सुन्दर-निर्मल वो इंसां कहलाते हैं

नज़रें हों कुछ अच्छाई पर फिर गलती बतलाओ तुम
लेकिन जो बस गलती देखें गलती करते जाते हैं

जो केवल निंदा करता है वह इक दिन मर जाता है
केवल सर्जक ही इक दिन स्वर्णिम इतिहास बनाते हैं

पहले हम काबिल बन जाएँ फिर सबको पथ दिखलाएँ 
क्या होगा जब अंधे-बहरे सबको राह दिखाते हैं

मैंने सच्ची बात कही है शायद कुछ कड़वी होगी 
सेहत भली रहे इस खातिर कड़वी दवा पिलाते हैं

शब्दों के जो आराधक हैं अपनी राह बनाते हैं 
खून सुखाते जाग-जाग कर फिर 'परसाद' चढ़ाते हैं

निंदा ही जिसका जीवन है उसको माफ़ करो पंकज
जो दिल से है बड़े वही दुनिया को प्यार लुटाते हैं 

13 टिप्पणियाँ:

कडुवासच October 11, 2010 at 9:10 AM  

... bahut sundar ... behatreen ... aabhaar !

समयचक्र October 11, 2010 at 9:30 AM  

शब्दों के जो आराधक हैं अपनी राह बनाते हैं
खून सुखाते जाग-जाग कर फिर 'परसाद' चढ़ाते हैं

बहुत बढ़िया रचना भाव .... आभार

महेन्‍द्र वर्मा October 11, 2010 at 9:59 AM  

शब्दों के जो आराधक हैं अपनी राह बनाते हैं,
खून सुखाते जाग जाग कर फिर परसाद चढ़ाते हैं।

सरस्वती के साधकों को समर्पित यह शेर उनकी शाश्वत साधना को सफलतापूर्वक अभिव्यक्त करता है।...आपके माध्यम से हिंदी ग़ज़ल की वापसी हो रही है।

शरद कोकास October 11, 2010 at 10:15 AM  

हिन्दी और उर्दू के बहुत सरल शब्दों का प्रयोग है इस गज़ल मे ।

ASHOK BAJAJ October 11, 2010 at 8:01 PM  

अपने दुर्गुण देख न पाए कोस रहे हैं दुनिया को
ऐसे ही नाकारे इक दिन मिटटी में मिल जाते हैं.

बहुत खूब . बधाई

संगीता स्वरुप ( गीत ) October 11, 2010 at 11:18 PM  

जो केवल निंदा करता है वह इक दिन मर जाता है
केवल सर्जक ही इक दिन स्वर्णिम इतिहास बनाते हैं

पहले हम काबिल बन जाएँ फिर सबको पथ दिखलाएँ
क्या होगा जब अंधे-बहरे सबको राह दिखाते हैं

बहुत सुन्दर गज़ल ..

vandana gupta October 12, 2010 at 12:20 AM  

बहुत सुन्दर गज़ल्।

राज भाटिय़ा October 12, 2010 at 12:40 AM  

पहले हम काबिल बन जाएँ फिर सबको पथ दिखलाएँ
क्या होगा जब अंधे-बहरे सबको राह दिखाते हैं
वाह पंकज जी बहुत सुंदर गजल, गजल का एक एक शेर लाजवाव, वेसे आज कल तो अंधे-बहरे ही लगे हे देश को रास्ते पर लाने को. धन्यवाद

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार October 13, 2010 at 8:53 AM  

आदरणीय गिरीश पंकज जी
नमस्कार !
आज भी अच्छी रचना है , बधाई ! आपकी लेखनी का तो मैं शुरू से ही कायल हूं … और , कौन नहीं होगा !

अपने दुर्गुण देख न पाए कोस रहे हैं दुनिया को
ऐसे ही नाकारे इक दिन मिट्टी में मिल जाते हैं

बहुत ख़ूब !

निंदा ही जिसका जीवन है उसको माफ़ करो पंकज
जो दिल से है बड़े वही दुनिया को प्यार लुटाते हैं

क्या बात है पंकज भाईसाहब !

लॉबिंग करके अपनी 'साख' जमाने को हाथ पांव मारने वालों को
माफ़ करने के कारण ही आप हम अपने सृजन द्वारा सर्वत्र प्यार लुटा रहे हैं ,
अन्यथा कुंठित लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ लंबी चौड़ी डींगे ही हांकते पाये जा रहे हैं …

मां जगदम्बा सबको सद्बुद्धि दे !
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार October 13, 2010 at 8:53 AM  

आदरणीय गिरीश पंकज जी
नमस्कार !
आज भी अच्छी रचना है , बधाई ! आपकी लेखनी का तो मैं शुरू से ही कायल हूं … और , कौन नहीं होगा !

अपने दुर्गुण देख न पाए कोस रहे हैं दुनिया को
ऐसे ही नाकारे इक दिन मिट्टी में मिल जाते हैं

बहुत ख़ूब !

निंदा ही जिसका जीवन है उसको माफ़ करो पंकज
जो दिल से है बड़े वही दुनिया को प्यार लुटाते हैं

क्या बात है पंकज भाईसाहब !

लॉबिंग करके अपनी 'साख' जमाने को हाथ पांव मारने वालों को
माफ़ करने के कारण ही आप हम अपने सृजन द्वारा सर्वत्र प्यार लुटा रहे हैं ,
अन्यथा कुंठित लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ लंबी चौड़ी डींगे ही हांकते पाये जा रहे हैं …

मां जगदम्बा सबको सद्बुद्धि दे !
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') October 14, 2010 at 9:11 AM  

अद्भुत ग़ज़ल है भईया... प्रणाम.

विनोद कुमार पांडेय October 14, 2010 at 10:28 AM  

बिल्कुल सच बात कहती हुई एक बेहतरीन ग़ज़ल प्रस्तुत की आपने..बधाई चाचा जी

संजय भास्‍कर October 23, 2010 at 7:34 AM  

बेहतरीन ग़ज़ल प्रस्तुत की आपने..बधाई
..... पंकज जी

सुनिए गिरीश पंकज को

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