''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
&COPY गिरीश पंकज संपादक सदभावना दर्पण. Powered by Blogger.

निशक्त हमारे ही परिजन है, इनका हम सम्मान करें,,,,,

>> Friday, December 3, 2010

एक लेखक होने के नाते मुझे लगता है कि मैं समाज के लिये अधिकाधिक उपयोगी बन सकूं. इसलिये साहित्य-सृजन के साथ-सथान्य सामाजिक सरोकारों से जुड़ने की कोशिशे करता हूँ. फिर वह शराबबंदी का आन्दोलन हो, गोरक्षा की बात हो, अंधश्रद्धा निर्मूलन हो, या कुछ और. एक लेखक के नाते मै सामाजिक बदलाव मे अपनी गिलहरी-भूमिका की कोशिश करता रहा हूँ. इस बीच मैं ''अखिल भारतीय विकलांग चेतना परिषद्'' नामक संस्था से जुडा. यह संस्था विकलांगों की सेवा में लगी है. इस संस्था की ओर से ४-५ दिसंबर को रायपुर में राष्ट्रीय संगोष्ठी भी हो रही है. इसमे देश भर के अनेक लेखन आयेंगे और विकलांगों के पक्ष मे लिखे जा रहे  साहित्य पर चर्चा करेंगे. इस संस्था के बारे में कभी सविस्तार लिखूंगा. संस्था के लिये मैंने एक प्रेरणा-गीत लिखा है--''निशक्त हमारे ही परिजन है, इनका हम सम्मान करें''.मेरा सौभाग्य है कि परिषद् के बड़े आयोजनों में यह गीत गाया जाता है. ''विकलांग दिवस'' पर उस गीत का अंश यहाँ दे रहा हूँ. दृष्टिबाधित बंधुओं के लिये भी एक गीत लिखा था, उसका अंश भी दे रहा हूँ. हम सब सृजनधर्मी मन वाले है. मै जानता हूँ, कि आपने भी निशक्तों के लिये कुछ न कुछ लिखा ही होगा. आज मेरे कुछ विचार देखें...


निशक्त हमारे ही परिजन है, इनका हम सम्मान करें
अपने जीवन के जैसा ही इन सबका उत्थान करे.

जाने कब किसके जीवन में, ये विपत्ति आ जाये,
हँसते-गाते काल-खंड में, दुःख-बदली छा जाये.
बड़ी कृपा ऊपर वाले की, उसने हमें बचाया.
लेकिन एवज में हमने क्या, निज कर्त्तव्य निभाया.
है कर्त्तव्य निशक्तों का हम, बिन बोले कल्याण करें.

निशक्त हमारे ही परिजन है, इनका हम सम्मान करें
अपने जीवन के जैसा ही इन सबका उत्थान करे.

एक गीतांश दृष्टिबाधितों के लिये...


नयन में ज्योति नहीं पर, दिलहमारा देखता है,
उसकी मुट्ठी में है दुनिया जो स्वयं का देवता है.

सृष्टि की रचना कहीं से जब ज़रा अनगढ़ हुई,
हम मनुष्यों की समस्या, तब अचानक बढ़ गई.
पर नहीं हारा समय से, जिसने खुद को गढ़ लिया,
और अपने कर्म की पुस्तक को पूरा पढ़ लिया.
वो विफलता के किले को, हौसले से भेदता है.
उसकी मुट्ठी में है दुनिया जो स्वयं का देवता है. 

नयन में ज्योति नहीं पर, दिलहमारा देखता है,
उसकी मुट्ठी में है दुनिया जो स्वयं का देवता है.

7 टिप्पणियाँ:

Anonymous December 3, 2010 at 8:07 AM  

सर जी बहुत अच्छा लिखा है

Thakur M.Islam Vinay December 3, 2010 at 8:23 AM  

nice post

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार December 3, 2010 at 9:10 AM  

गिरीश भाईसाहब
नमस्कार !

आप सचमुच क़लम का ॠण भी साथ ही साथ चुकता करते हुए लेखन करते हैं ।
यदि हम किसी विवश, अशक्त, अबोल को वाणी न दे पाएं तो हमारा लेखक होना ढोंग है , हमारा सृजन छद्म है ।

नमन!
शुभकामनाएं !!
- राजेन्द्र स्वर्णकार

Rahul Singh December 3, 2010 at 6:14 PM  

विकलांग और निशक्‍त के बजाय शारीरिक चुनौतियों का मुकाबला करते, physically challenged बेहतर लगता है.

श्रद्धा जैन December 3, 2010 at 7:48 PM  

जाने कब किसके जीवन में, ये विपत्ति आ जाये,
हँसते-गाते काल-खंड में, दुःख-बदली छा जाये.
बड़ी कृपा ऊपर वाले की, उसने हमें बचाया.
लेकिन एवज में हमने क्या, निज कर्त्तव्य निभाया.
है कर्त्तव्य निशक्तों का हम, बिन बोले कल्याण करें.

aapne satay kaha hai.. waqayi bahut badi krupa hai upar wale ki .. aur kalam ka farz nibhana bhi zaruri hai

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') December 4, 2010 at 6:09 AM  

भईया प्रणाम,
अपने प्रयासों को आपने सामाजिक सरोकार के सन्दर्भ में 'गिलहरी भूमिका' उद्धृत किया है, किन्तु मुझे तो ऐसे सुन्दर, सार्थक सन्देश को हमारी सामाजिक संरचना की नींव कहना लाजिम जान पड़ता है...
हमारे दश में लाखों की संख्या में मासूम बच्चे नेत्रदान की कमी के चलते अन्धकार में जीवन यापन कर रहें हैं...

"नेत्रदान का संकल्प,
दृष्टीहीनता का विकल्प है.
यह मार्ग है अमरत्व का,
वरना जीवन तो अत्यल्प है.

नेत्रदान का संकल्प स्वयम लें तथा औरों को भी इस महान कृत्य के लिए प्रेरित करें तो हम अपने अनेक मासूमों की ज़िंदगी रौशन बना सकते हैं.

"दृष्टीहीनता का अभिशाप
मिटा सकते हैं हम और आप."

अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का स्मरण कराती इस सार्थक रचना के लिए आभार.
सादर प्रणाम.
आपका छोटा भाई.

आनन्द जोशी August 27, 2011 at 6:19 PM  

पंकज भाईसाहब,
प्रणाम ....
बहुत ही शानदार लिखी यही कविता है ..एक नि:शक्त की क्या व्यथा है ..जानता हूँ साब.. हर क्षण उसके मन में क्या होता है समझा है साब.. इन पर राजनीति कैसी की जा सकती है .. यह भी देखा है .. साब ... क्यो कि एक नि:शक्त मेरा छोटा भाई है साहब ... मैं अपनी माँ को मैं सदैव धन्यवाद देता हूँ कि .. उसने मुझे जिम्मेवारी सौप कर स्वयं इस मोह माया जाल से हमेशा हमेशा के लिए स्वर्गलोक चली गई .... अन्यथा आज वो अपने लाडले की व्यथा को देखती तो रूदन करती .....
एक बाद पुन: धन्यवाद .....

सुनिए गिरीश पंकज को

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