फिर एक नई ग़ज़ल / पास हमारे आओ थोड़ा....
>> Sunday, December 5, 2010
पास हमारे आओ थोड़ा
दूरी ज़रा मिटाओ थोड़ा
दूरी ज़रा मिटाओ थोड़ा
जीना भी तो एक कला है
पीड़ा में मुस्काओ थोड़ा
साफ़ दिखेगा तुम्हें नज़ारा
परदे जरा हटाओ थोड़ा
परदे जरा हटाओ थोड़ा
रूठेंगे अपने भी कब तक
जाओ उन्हें मनाओ थोड़ा
भूखे को रोटी दे दो तुम
ऐसे पुण्य कमाओ थोड़ा
ये दुनिया तो होगी अपनी
केवल हाथ बढ़ाओ थोड़ा
रौशन हो जाएगा जीवन
मन का दीप जलाओ थोड़ा
खुशियाँ हो जाती हैं दूनी
बेशक इन्हें लुटाओ थोड़ा
कैसा सुख मिलता बंजर में
कोई फूल खिलाओ थोड़ा
आँसू भी शरमा जायेंगे
गीत कोई तुम गाओ थोड़ा
तेरा इंतजार है कब से
अपना हमें बनाओ थोड़ा
जीवन है इक सुन्दर पुस्तक
पढ़ते रहो, पढ़ाओ थोड़ा
होगा परिवर्तन भी इक दिन
सोए लोग जगाओ थोड़ा
कौन दूध का धुला है पंकज
एक खोज कर लाओ थोड़ा
12 टिप्पणियाँ:
बहुत बढ़िया रचना है।बधाई।
जीवन एक सुन्दर पुस्तक है ...
पढ़ते रहो ...पढ़ो थोडा ....
सही बात ...
कौन दूध का धुला है पंकज
एक खोज कर लाओ थोड़ा
सब खुद को मानते हैं दूध का धुला ...अन्दरखाने हकीकत भी सब जानते हैं ..
अच्छी कविता !
बहुत अच्छी गज़ल ...अच्छी दिशा में सोचने को बाध्य करती हुई
... sundar ... bhaavpoorn !!!
सीधा, सादा, सुन्दर भावाभिव्यक्ति भईया....
"ऐसा सुन्दर कहने का ढंग
हमको भी सिखलाओ थोड़ा"
सादर.
बहुत सुन्दर रचना।
बेहतरीन रचना। बधाई।
जीना भी तो एक कला है
पीड़ा में मुस्काओ थोड़ा
बहुत प्रेरक रचना..आभार
बहुत बढ़िया रचना
sundar abhivyakti!
जीना भी तो एक कला है
पीड़ा में मुस्काओ थोड़ा
बहुत खूब .. यही जीवन है
बहुत प्रेरक रचना
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