''सद्भावना दर्पण'

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ब्राह्मण होने का गुरूर...?

>> Monday, December 27, 2010

कल रात एक धार्मिक चेनल पर नज़र चली गई. पिताजी देख रहे थे.तो मैं भी बैठ गया. कोलकाता में योग गुरू बाबा रामदेव का कोई कार्यक्रम था. उनके बगल में कोई प्रवचनकार बैठे थे. वे अपने उदगार व्यक्त कर रहे थे. उनके विचार मुझे ठीक लग रहे थे. लगा देखो, कितनी अच्छी बातें कर रहे हैं. लेकिन अंत आते-आते-आते प्रवचनकार ने अपना ''असली'' चेहरा दिखा ही दिया. बाबा रामदेव की तारीफ करते हुए अंत में प्रवचनकार ने कहा, ''एक ब्राह्मण होने के नाते मैं बाबा रामदेव को आशीर्वाद देता हूँ'' मुझे बड़ी हँसी आई. जिस प्रवचनकार को मैं ज्ञानी समझ रहा था, वह तो भयंकर अज्ञानी निकला. शायद उसे पता था, कि बाबा रामदेव की जाति क्या है. जबकि कबीर भी कहते है-''जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान/ मोल करो तलवार का/पडी रहन दो म्यान'' अरे भाई, जब आप संत हो गए है,लोगों को सही राह दिखाने का ठेका ले चुके है, तो फिर अपने को ब्राह्मन बताने की मानसिकता से ग्रस्त क्यों है? इस बात के लिये उस प्रवचनकार को खेद व्यक्त करना चाहिए कि उनसे गलती हो गई.साधु-संत को धर्म-जाति के संकुचित दायरे से ऊपर उठना चाहये. सामान्यजन इस टुच्चेपन से ग्रस्त रहे तो कोई बात नहीं.सबका विवेक जाग्रत नहीं हो सकता.लेकिन जो समाज को दिशा देने का काम करते है, उन्हें जाति-धर्म से ऊपर उठा कर आचरण करनाचाहिये. यह एक हल्कापन है, कि आप अपने आपको ब्राह्मन बता कर किसी को शुभकामना दें. इसका मतलब तो यही हुआ,कि आप अपने को कुछ ऊँचा समझने की भूल कर रहे है. अरे भाई, सभी मनुष्य बराबर है. क्या ब्राह्मन,क्या दलित क्या ''अजा'', क्या ''जजा'', क्या मुस्लिम लेकिन हम लोगों के दिमाग में टुच्चापन इतना भरा हुआ है,कि ज्ञान की बाते करते-करते अज्ञान की दलदल में उतर जाते है. नैतिकता कि खुराक देने वाला अचानक बीमार लगने लगता है, जब वह खुद को जैन मुनि-संत, या मुस्लिम संत, या ब्राह्मन संत समझ लेता है. मतलब साफ़ है,कि अभी वह सही मायने में ज्ञानी नहीं हो पाया है.अभी वह ''प्रशिक्षु'' है.अभी उसे कुछ और वक्त लगेगा. खैर, उस प्रवचनकार की ब्राह्मवादी मानसिकता को देख कर दो व्यंग्य-पद लिखने पर मज़बूर होना पडा..महीनों बाद तीन व्यंग्य-पद.... 

(१)
साधो, संत बड़ा अज्ञानी.
खुद को कहता फिरता बम्भन, मतलब है पक्का अभिमानी.
चोला बदललिया तो क्या है, मूरख करता है नादानी.
जातिवाद से चिपका है फिर कैसे कह दूं है वो ज्ञानी.
संत हो गए तो फिर फ़ौरन जाति-वाति हो गई बेमानी..
जात-धर्म से ऊपर उठ जा, तू केवल धरती का प्रानी
ज्ञान अगर है सच्चा तो फिर, ये दुनिया है केवल फानी.
साधो, संत बड़ा अज्ञानी.
(२)
वाह रे बामन तेरा प्रवचन..
जाति-धर्म का अँधा है तू, बाँट रहा है सबको अंजन.
दो कौड़ी का ज्ञान तुम्हारा, बस घमंड है तेरा बंधन 
अच्छा भाषण, सुंदर बातें, लेकिन नकली दिखता जीवन.
धर्म-कर्म भी धंधा है अब, धंधे में आये कुछ 'लुच्चन'
पढ़ी किताबें हो गए ज्ञानी, मगर है घटिया उनके लच्छन.
संत नहीं नक्काल भरे हैं नैतिकता का करते हैं भंजन...
हँसता हूँ मैं ह...ह...ह...ह...अंधे के हाथों में कंगन...
वाह रे बामन तेरा प्रवचन..
(३)
साधु-संत ये कैसे है?
कोई बामन, कोई जैनी, कोई मुस्लिम लगते हैं.
अपने धर्म-जात से चिपके, खुद को ज्ञानी कहते हैं.
दुनिया कहाँ-कहाँ तक पहुँची ये खूंटी पर लटके हैं.
शर्म आ रही देख के इनको, जाति-धर्म के पुतले हैं.
कोई होगा शायद सच्चा, ज्यादा ऐसे-वैसे हैं.
इंसां तो ये बन ना पाए,धार्मिक बन के लटके हैं..
ज्ञान-बीन को सुन न पाते, लगता है कि भैंसे हैं.
साधु-संत ये कैसे है?

17 टिप्पणियाँ:

Er. सत्यम शिवम December 27, 2010 at 8:10 AM  

bahut hi sundar prastuti......
*काव्य-कल्पना*

Rahul Singh December 27, 2010 at 9:02 AM  

वाह गिरीश भाई, लंबे समय बाद मैंने आपको ओरीजनल मूड में पाया, सो मजा आ गया.

राज भाटिय़ा December 27, 2010 at 10:30 AM  

सहमत हे जी आप की बात से, बहुत सुंदर लिखा आप ने धन्यवाद

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार December 27, 2010 at 2:46 PM  

आदरणीय गिरीश पंकज जी
नमस्कार !
आज तो आपको कबीर कहने को मन कह रहा है ।
तीनों पद एक से एक बढ़ कर हैं …
सच में आप को ससम्मान आत्मा से प्रणाम कर रहा हूं …

~*~नव वर्ष २०११ के लिए हार्दिक मंगलकामनाएं !~*~

शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार

ब्लॉ.ललित शर्मा December 27, 2010 at 6:33 PM  

भाई साहब शहस्त्राब्दियों का रोग इतनी जल्दी जाने वाला नहीं है।

सुंदर पदों के लिए आभार

ZEAL December 27, 2010 at 7:46 PM  

सार्थक आलेख !

Shah Nawaz December 27, 2010 at 7:59 PM  

बिलकुल सही कहा आपने...

सुनील गज्जाणी December 28, 2010 at 1:30 AM  

गिरीश जी ,
नमस्कार !
सहमत हूँ आप के इन विचारों से सहमत हे
बहुत सुंदर लिखा आप ने धन्यवाद
सादर

परमजीत सिहँ बाली December 28, 2010 at 1:38 AM  

सही बात। बढ़िया पोस्ट।

Dr. Zakir Ali Rajnish December 28, 2010 at 2:50 AM  

पंकज जी, मुझे तो सारे संत ही इसी तरह के बनावटी लगते हैं। :)
आपने बढिया बात कही, काश ये बात संतों को भी समझ में आती।

---------
अंधविश्‍वासी तथा मूर्ख में फर्क।
मासिक धर्म : एक कुदरती प्रक्रिया।

vandana gupta December 28, 2010 at 2:55 AM  

आप के इन विचारों से सहमत हूँ।

girish pankaj December 28, 2010 at 4:07 AM  

मेरे विचारों को मेरे शुभचिंतकों ने, चाहने वालों ने इतना प्यार दिया, यह देख कर प्रसन्नता हुई. मतलब यह की अनेक लोग हैं, जो आज जाति-धर्म के आडम्बरों से ऊपर उठ कर सोचते हैं. मैं सभी को दिल धन्यवाद देता हूँ. उनको जिन्होंने टिपण्णी की, उन्हें भी जो भविष्य में शायद कुछ लिखें या सोचें.और मुझे सम्बल प्रदान करें.

अजय कुमार झा December 28, 2010 at 5:28 AM  

बहुत ही अनमोल पंक्तियां है गिरीश भाई ,
नव वर्ष की शुभकामनाएं अग्रिम ही

मेरा नया ठिकाना

गौरव शर्मा "भारतीय" December 28, 2010 at 7:50 AM  

प्रणाम,
आपकी बातों से शत प्रतिशत सहमती व्यक्त करते हुए इस सार्थक पोस्ट के लिए शुभकामनायें..
{साथ ही इश्वर से प्रार्थना है की इन तथाकथित ज्ञानियों को सद्बुद्धि प्रदान करें}

संगीता स्वरुप ( गीत ) December 28, 2010 at 9:56 AM  

बहुत बढ़िया व्यंग ...मानसिकता में कोई बदलाव मुश्किल से आता है ..

arvind December 28, 2010 at 9:12 PM  

badhiya..vichaarneey post...lekin aapke vichaar se sahamat nahi huaa jaa sakta....haan aashirvaad dene kaa adhikaar sabko hai....yedi ve sc/st hote our baba ko aashirvaad dete to our bhee garv kaa vishay hota... is samband me swaami vivekaanand ke vichaar anukaraneey hai jo kahate hai....mujhe garv hai ki main kshatriya kul me paidaa huaa hun.. parantu mere virodhiyon kaa kahanaa hai ki main shudra hun...yadi main shudra hotaa to mujhe our nhee garv hotaa...

कमल शर्मा January 4, 2011 at 6:22 AM  

प्रिय भाई गिरीशजी
अपने विद्यार्थी जीवन से आपके बारे में सुन रहा हूँ, अक्सर आपको रज्बन्धा मैदान से गुज़रते देखता हूँ, सरल पहनावा सादगी से भरा आपका व्यक्तित्व. अक्सर सोचता था, की इस पत्रकार गल्ली में यह भला मानुस कौन है, आज पहली बार आपके व्यंग्य को पढ़कर बड़ा सुकून मिला, आप जैसे लोग जो स्थापित और प्राचीन परंपराओं को तोड़ कर कुछ नया सृजन करने का प्रयास करते हैं. आपको साधुवाद आपकी लेखनी को साधुवाद.
आपका
कमल शर्मा

सुनिए गिरीश पंकज को

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