गीतालेख : तेरा वैभव अमर रहे माँ...मगर कचरे में ?
>> Wednesday, December 29, 2010

ये हाल है हमारे इस समय का. दीवार देख कर किसी महानुभाव ने नारा लिख दिया, अपना नाम-पता भी लिख मारा लेकिन उन्होंने इस बात की चिंता नहीं की कि गायें कचरे के ढेर में खड़ी न हों. गाय के साथ यही हो रहा है इस देश में. लोग नारे लगाते हैं, गाय-गाय चिल्लाते हैं, मगर गो सेवा के नाम पर चंदे खाने के सिवा कुछ भी नहीं करते. सबकी नज़र गो सेवा आयोग के फंड पर रहती है. सब यही चाहते है, कि उनकी गौशाला को चंदा मिले, अनाज मिले. और वे गौशाला के पैसे से मालामाल होते रहे. इस समाज में ऐसे लोग भी हैं,जो गाय को प्रणाम करेंगे और वक़्त आने पर लात भी मरेंगे. अजीब है लोग, गाय बीमार पड़ जाये, या बाँझ हो जाये तो उसे बेच कर नोट कमाने में पीछे नहीं रहेंगे. ऐसे भयंकर निर्मम समय में गाय होना खतरनाक है. गाय जब दीवारों पर लिखे नारे देखती है, कि ''तेरा वैभव अमर रहे माँ'', तो खूब हंसती है और कहती है-''अरे मनुष्य, तू बड़ा पाखंडी हो गया है रे. मैं तेरे छल-छंदर को प्रणाम करती हूँ. मनुष्य तू बड़ा महान है. तेरे चरण कहाँ है, मै तुझे नमन करती हूँ. ले..तू मेरा ये गीत सुन ले...-
गाय हूँ, मैं गाय हूँ, इक लुप्त-सा अध्याय हूँ।
लोग कहते माँ मुझे पर मैं बड़ी असहाय हूँ।।
दूध मेरा पी रहे सब, और ताकत पा रहे।
पर हैं कुछ पापी यहाँ जो, माँस मेरा खा रहे।
देश कैसा है जहाँ, हर पल ही गैया कट रही।
रो रही धरती हमारी, उसकी छाती फट रही।
शर्म हमको अब नहीं है, गाय-वध के जश्न पर,
मुर्दनी छाई हुई है, गाय के इस प्रश्न पर।
मुझको बस जूठन खिला कर, पुन्य जोड़ा जा रहा,
जिं़दगी में झूठ का, परिधान ओढ़ा जा रहा।
कहने को हिंदू हैं लेकिन, गाय को नित मारते।
चंद पैसों के लिये, ईमान अपना हारते।
चाहिए सब को कमाई, बन गई दुनिया कसाई।
माँस मेरा बिक रहा मैं, डॉलरों की आय हूँ।। गाय हूँ....
मेरे तन में देवताओं का, सुना था वास है।
पर मुझे लगता है अब तो, बात यह बकवास है।
कैसे हैं वे देव जो, कटते यहाँ दिन-रात अब,
झूठ कहना बंद हो, पचती नहीं यह बात अब।
मर गई है चेतना, इस दौर को धिक्कार है।
आदमी को क्या हुआ, फितरत से शाकाहार है।
ओ कन्हैया आ भी जाओ, गाय तेरी रो रही।
कंस के वंशज बढ़े हैं, पाप उनके ढो रही।
जानवर घबरा रहे हैं, हर घड़ी इनसान से।
स्वाद के मारे हुए, पशुतुल्य हर नादान से।
खून मेरा मत बहाओ, दूध मेरा मत लजाओ।
बिन यशोदा माँ के अब तो, भोगती अन्याय हूँ।। गाय हूँ...
मैं भटकती दर-ब-दर, चारा नहीं, कचरा मिले,
कामधेनु को यहाँ बस, जहर ही पसरा मिले।
जहर खा कर दूध देती, विश्वमाता हूँ तभी,
है यही इच्छा रहे, तंदरुस्त दुनिया में सभी।
पालते हैं लोग कुत्ते और बिल्ली चाव से,
रो रहा है मन मेरा, हर पल इसी अलगाव से।
डॉग से बदतर हुई है, गॉड की सूरत यहाँ,
सोच पश्चिम की बनी है इसलिए आफत यहाँ।
खो गया गोकुल हमारा, अब कहाँ वे ग्वाल हैं,
अब तो बस्ती में लुटेरे, पूतना के लाल हैं।
देश को अपने जगाएँ, गाँव को फौरन बचाएँ।
हो रही है नष्ट दुनिया, मैं धरा की हाय हूँ।। गाय हूँ.....
8 टिप्पणियाँ:
भाई साहब, पशुधन की हानि होना चिंता का विषय है। "गावो विश्व मातर:" कहा गया है। मानवीय उदासीनता बहुत घातक है। आपकी चिंता में हम भी शरीक है। अवश्य ही इस ओर सोचना होगा। चंदा खाने वाली संस्थाएं तो बहुत है। अब पशुधन रक्षार्थ कुछ सार्थक कार्य भी होना चाहिए।
आभार
चिंता का विषय है।
काश गौवंश पढ़ पाता, क्या प्रतिक्रिया होती उसकी.
आप की सभी बातो से सहमत हुं, गोशाला क्या आज तो लोग मंदिरो ओए अन्य धार्मिक स्थानो मे भी सिर्फ़ पेसो पर, चढाबे पर नजर गढाये रहते हे, नारे लगाने वाले समय पर पीछे हट जाते हे, ओर इस मुर्ख जनता को आगे कर देते हे,पता नही इन लोगो का जमीर कहां गया धन्यवाद
यह बता दूं कि मैं धार्मिक नहीं हूँ. पूजा-वगैरह में कोई यकीन नहीकरता. मंदिर भी नहीं जाता. भगवान् के सामने हाथ जोड़ने की ज़रुरत ही नहीं पडी, क्योंकि मेरा मानना है, कि ''जिसका मन निर्मल होता है/जीवन गंगाजल होता है'' मैं केवल भले कर्म करने कि विनम्र कोशिशें करता रहता हूँ,
आपने तो मेरे मन की बात लिख दी...गाय का जो दारुण चित्र आपने खींचा है ये पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता है...पूरे देश में गाय की हालत एक सामान है...हम सिर्फ नारे देते हैं उनपर अमल नहीं करते..और ये आज से नहीं सदियों से हमारे साथ चला आ रहा है...कहते कुछ हैं और करते कुछ..
आपका लेख पढ़ कर आँखें नाम हो गयीं...
नीरज
प्रणाम,
आपके इस पोस्ट ने भी सोचने पर मजबूर कर दिया है |
अवश्य इस दिशा में सार्थक प्रयास यथा शीघ्र प्रारंभ करना होगा जो दिखावे के लिए नहीं वरन गोमाता के लिए हो |
देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान , कितना बदल गया इंशा … कितना हैवान बना इंशान …। अफ़सोस उफ़ … । जीव दया से बड़ी पूजा और क्या होती है । अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं । "खबरों की दुनियाँ"
बहुत ही सुन्दर पोस्ट, परन्तु हम सोचें कि कौन इसका जिम्मेदार है....क्या सिर्फ़ वे लोग जो गौमाता के नाम पर चिल्लाते हैं ( पर उनकी सुन कौन रहाहै)....या हम सब..जो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं.
----आज के पेकेट व डिब्बा बन्द खाद्य के युग में सामान्य जन द्वारा गौ पालन का क्या महत्व रह गया है...आज कहां किस के पास समय है गाय पालने का व गाय के दूध के प्रयोग का......क्या सरकार व हम सबका कर्तव्य नहीं है कि इस पर आवाज़ उठायें, कडे नियम बनाये जायें, गौ पालकों को नियमों में बांधा जाये...
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