व्यंग्य-ग़ज़ल / बौने भी तब बड़े हुए हैं......
>> Friday, January 14, 2011
कुरसी पर जब खड़े हुए हैं
बौने भी तब बड़े हुए हैं
चमकीले फल जैसा दिखते
भीतर से पर सड़े हुए हैं
कोस रहे है दुनिया भर को
चार किताबें पढ़े हुए हैं
मूरख की पहचान यही हैं
भले गलत हैं, अड़े हुए हैं.
खुश हैं अपनी कमअकली पे
बेशर्मी में गड़े हुए हैं
खुद से ही वे कुढ़े हुए हैं
जहाँ पड़े थे, पड़े हुए हैं
काम किसी के आ ना पाए
बस फोटो-सा मढ़े हुए हैं
समझ न पाए अच्छी बातें
मतलब चिकने घड़े हुए हैं
खुद को ही पहचान न पाए
चने-झाड़ पर चढ़े हुए हैं
दुनिया से क्या होगी यारी
अपनों से जो लड़े हुए हैं
केवल सच्चे सत्य राह पर
मरते दम तक अड़े हुए हैं
समझे वही पसीना क्या है
मेहनत से जो बढ़े हुए हैं
धोखा खा कर इस दुनिया से
पंकजजी कुछ कड़े हुए हैं
15 टिप्पणियाँ:
वाह क्या बात है,खालिश सच!!और सच!!
सही में पंकज जी आज कडे हुए है।
वाह क्या बात है,खालिश सच!!और सच!!
सही में पंकज जी आज कडे हुए है।
सोलह आने खरी बात है जी। उतना ही सच जितना कि सुरज पुरब से निकलता है।
वाह! क्या बात है! बेहतरीन रचना, शब्दों का बहुत सुन्दर प्रयोग !
काम किसी के आ ना पाए
बस फोटो-सा मढ़े हुए हैं
वाह! क्या बात है!
वाह बहुत ही अच्छा |
वाह ज़बरदस्त!!!
बहुत सुंदर रचना जी, धन्यवाद
लोहड़ी, मकर संक्रान्ति पर हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई
समझ न पाए अच्छी बातें
मतलब चिकने घड़े हुए हैं
.
बहुत खूब कहा है
धोखा खा कर इस दुनिया से
पंकजजी कुछ कड़े हुए हैं
क्या बात है जी बहुत बेहतर बहुत ख़ास। अहा!
कुर्सी पर खड़े हुए और चने के झाड़ पर चढ़े हुए लोगों पर जबरदस्त कटाक्ष किया है आपने।
ग़ज़ल में व्यंग्य बहुत कम पढ़ने को मिलता है। आपकर यह रचना पसंद आई।
I enjoyed reading the creation. Indeed very appealing !
बहुत खूब...आज की व्यवस्था पर बहुत सटीक व्यंग..आभार
वाह भईया.. मजा आ गया २४ केरेट का व्यंग्य पढ़कर...
सादर प्रणाम.
वाह...
बेहतरीन...
मजा आ गया ...
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