नई ग़ज़ल/ जो कहता है यहाँ पर सच उसी की जान जाती है
>> Monday, August 8, 2011
जो कहता है यहाँ पर सच उसी की जान जाती है
जो हैं झूठे वहां खुशियों की चादर झिलमिलाती है
बड़ी तकलीफ होती है जहां झूठे ही बसते हैं
सच्चाई तो दुबक कर के वहां आंसू बहाती है
ये मेरे लोग ही मुझको पराये-से लगें अब तो
अगर सच बोलता हूँ तो जुबां ये लड़खड़ाती है
अगर इंसान है ऊंचा तो अपना दिल बड़ा कर ले
जहां बौने हों दिल से लोग वह बस्ती सताती है
मैं वैसा मुल्क चाहूंगा जहां सच पे न हों पहरे
अभी तो बंदिशों में आत्मा ही छटपटाती है
कोई तो आये बोले खुल के अपनी बात रख दे तू
यहाँ हर एक कुर्सी रंग सामंती दिखाती है
यहाँ भगवान भी पत्थर से बाहर आ नहीं पाता
उसी के सामने इज्ज़त कोई अपनी गंवाती है
ज़रा सोचो न इतराओ चलो इनसान बन जाओ
अरे यह चार दिन की ज़िंदगी कब लौट पाती है
न जाने कब सुगन्धित दौर आएगा यहाँ पंकज
अभी तो हर तरफ नाली यहाँ पर बजबजाती है
11 टिप्पणियाँ:
जो कहता है यहाँ पर सच उसी की जान जाती है
जो हैं झूठे वहां खुशियों की चादर झिलमिलाती है
मतला तो बहुत ही खूबसूरत है!
बेहतरीन ग़ज़ल के लिए बहुत-बहुत बधाई स्वीकार करें ।
मैं वैसा मुल्क चाहूंगा जहां सच पे न हों पहरे
अभी तो बंदिशों में आत्मा ही छटपटाती है
बेहतरीन शेरो का पिटारा , गिरीश जी बेमिशाल. एक व्यक्तिगत अनुनय मुझे आपकी सहितियक कृतियाँ अपने संकलन में चाहिए कहाँ संपर्क करूं. सादर (कुश्वंश@जीमेल.कॉम)
मैं वैसा मुल्क चाहूंगा जहां सच पे न हों पहरे
अभी तो बंदिशों में आत्मा ही छटपटाती है
कोई तो आये बोले खुल के अपनी बात रख दे तू
यहाँ हर एक कुर्सी रंग सामंती दिखाती है
सटीक बात कही है ..अच्छी गज़ल
बेहतरीन ग़ज़ल
सादर,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
यहाँ भगवान भी पत्थर से बाहर आ नहीं पाता
उसी के सामने इज्ज़त कोई अपनी गंवाती है
लाजवाब ग़ज़ल गिरीश जी..बधाई स्वीकारें...
नीरज
सही फरमाया
ज़रा सोचो न इतराओ चलो इनसान बन जाओ
अरे यह चार दिन की ज़िंदगी कब लौट पाती है
लाजवाब...
ज़रा सोचो न इतराओ चलो इनसान बन जाओ
अरे यह चार दिन की ज़िंदगी कब लौट पाती है
वाह भईया... बहुत सुन्दर ग़ज़ल...
सादर..
एक एक लाइन पर दिल वाह वाह कह उठता है भाई जी ! शुभकामनायें !
बड़ी तकलीफ होती है जहां झूठे ही बसते हैं
सच्चाई तो दुबक कर के वहां आंसू बहाती है
ये मेरे लोग ही मुझको पराये-से लगें अब तो
अगर सच बोलता हूँ तो जुबां ये लड़खड़ाती है
बहुत खूब...
शानदार ग़ज़ल...
मैं वैसा मुल्क चाहूंगा जहां सच पे न हों पहरे
अभी तो बंदिशों में आत्मा ही छटपटाती है
कोई तो आये बोले खुल के अपनी बात रख दे तू
यहाँ हर एक कुर्सी रंग सामंती दिखाती है
aaina bhi dikha diya
dil ka raj bhi bata diya
log rango se deewaron pe chitra banate hain
aapne shabdon se dilon ko hilate hain,,,, behad shandar rachna,, aap jaise kalam ke pujariyon ki inayat agar ham jaise nausikhiyon pe ho jaye to hame margdarshan mile,,,isi akanksha ke sath apne blog pe aane ka amantran de raha hoon
Post a Comment