''सद्भावना दर्पण'

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नई ग़ज़ल / जख्म हरे हैं अब तक कल के....

>> Saturday, November 19, 2011

छल पाया तो आँसू छलके
जख्म हरे हैं अब तक कल के 

किसको पहचानें हम आखिर
चेहरों पर हैं बड़े धुंधलके

बार-बार टूटे हैं सपने
देखे थे हमने जो कल के

साँप बड़े जहरीले हो गए
अनजाने में ही पल-पल के

चिकने चेहरों पर मत जाना 
अक्सर निकले है दलदल के

अपना समझा भेद बताया
बात उगल दी आगे चल के?

पता नहीं चलता दुनिया में
कौन कहाँ मारेगा चल के

सबसे सुन्दर मौन रहो बस
मत बोलो कुछ यहाँ उबल के

टांग खींचने वाले बढ़ गए
संभलोगे इक बार फिसल के

चेहरे पे मुस्कान भले हो
पैरों में हैं छाले चल के

दीपक बनना खेल नहीं है
उजियाला देता है जल के

हम समझे वो साधू होगा
आया शातिर भेष बदल के

तुम तो चलते जाना पंकज
जलने वाले बैठें जल के

12 टिप्पणियाँ:

Unknown November 19, 2011 at 8:01 AM  

दीपक बनना खेल नहीं है
उजियाला देता है जल के

बेहतरीन शब्दों का संकलन , भावविभोर हूँ

वाणी गीत November 19, 2011 at 6:20 PM  

हम समझे वो साधू होगा
आया शातिर भेष बदल के...


बिंध देने वाले सत्य को सुर और शब्द दोनों मिले !

अनुपमा पाठक November 19, 2011 at 6:30 PM  

दीपक बनना खेल नहीं है
निश्चित ही!

सुंदर प्रस्तुति!

दिलबागसिंह विर्क November 19, 2011 at 6:55 PM  

आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा मंच-704:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

Amrita Tanmay November 19, 2011 at 10:50 PM  

बहुत सुंदर रचना

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') November 20, 2011 at 12:16 AM  

वाह वाह आदरणीय बड़े भईया...
इस बेशकीमती ग़ज़ल के लिए सादर बधाई....
सादर प्रणाम....

अरुण चन्द्र रॉय November 21, 2011 at 3:46 AM  

"दीपक बनना खेल नहीं है
उजियाला देता है जल के"
उत्कृष्ट ग़ज़ल... आपके नाम से परिचय था, ब्लॉग से नहीं... नियमित आकर लाभन्वित होता रहूँगा...

avanti singh November 24, 2011 at 8:44 PM  

bahut hi achchi aur dil ko chune wali gazal.bdhai sweekaren....

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार December 2, 2011 at 8:05 AM  

भाईजी
प्रणाम !

बहुत अच्छी ग़ज़ल है । बहुत बहुत मुबारकबाद !

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार December 2, 2011 at 8:07 AM  

गिरीशजी भाईसाहब
आपने फेसबुक पर भी बेमिसाल ! लाजवाब ! रचना डाली है …

# तलवारें हैं कागज की पर जुल्म मिटाने निकले हैं
अपनी बस्ती मे देखो ये कुछ दीवाने निकले हैं

# अत्याचारों की ये लंका आखिर कब तक चमकेगी
पवनपुत्र-सी हिम्मत लेकर आग लगाने निकले हैं

# सत्ता की चौखट पर जिनने खुद को ही नीलाम किया
हम ऐसे नाकारों के सिर ताज सजाने निकले हैं ?

नहीं ! हरगिज नहीं !!
पढ़ कर लगता है कि क्रांति आने को ही है …
प्रणाम आपकी लेखनी और राष्ट्र-भावना को !!!

निवेदिता श्रीवास्तव December 6, 2011 at 1:26 AM  

बेहतरीन ......

virendra sharma December 13, 2011 at 10:37 AM  

सबसे सुन्दर मौन रहो बस
मत बोलो कुछ यहाँ उबल के
सटीक लाज़वाब .

सुनिए गिरीश पंकज को

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