''सद्भावना दर्पण'

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इतनी सुन्दर दुनिया है ये इसे छोड़ कर जाऊं कैसे

>> Thursday, September 27, 2012

इतनी सुन्दर दुनिया है ये इसे छोड़ कर जाऊं कैसे
लेकिन जाना भी है निश्चित इसको मैं बिसराऊँ कैसे


आने का तो मन था लेकिन अनचाहा मेहमान नहीं
कोई तो हो एक इशारा बिन इसके मैं आऊं कैसे


अपनी नादानी से मैंने खोये हैं कितने मौके
बीत गया जो वक्त उसे अब आज दुबारा पाऊँ कैसे


जीवन है ये एक चुनरिया इस पे धब्बा ठीक नहीं
इतने धब्बे लग गए इनमें आखिर इन्हें छुडाऊँ कैसे


दिल ये मेरा चाहे उनको लेकिन बोल नहीं पाया

अपने इन ज़ज्बातों को मैं आखिर कहो छिपाऊँ कैसे

कोई इक तस्वीर बसी थी अपने दिल के कोने में
उसने तोड़ दिया है रिश्ता लेकिन इसे मिटाऊँ कैसे

रिश्ते नाजुक होते हैं ये टूट गए नादानी में
समझ न आये पंकज आखिर बिगड़ी बात बनाऊं कैसे
 

6 टिप्पणियाँ:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया September 27, 2012 at 8:59 AM  

वाह ,,,, पंकज जी,बहुत ही कमाल की अभिव्यक्ति,

रिश्ते नाजुक होते हैं ये टूट गए नादानी में
समझ न आये पंकज आखिर बिगड़ी बात बनाऊं कैसे,

RECENT POST : गीत,

dr. ratna verma September 27, 2012 at 9:12 AM  

बहुत सुंदर... अहसास से भरी पंक्तियां हैं पंकज जी, बधाई।
इतनी सुन्दर दुनिया है ये इसे छोड़ कर जाऊं कैसे
लेकिन जाना भी है निश्चित इसको मैं बिसराऊँ कैसे
-डॉ. रत्ना वर्मा

shikha varshney September 27, 2012 at 10:34 AM  

रिश्ते नाजुक होते हैं ये टूट गए नादानी में
समझ न आये पंकज आखिर बिगड़ी बात बनाऊं कैसे,
बहुत ही प्रभावी पंक्तियाँ .
पर सकारात्मक लेखनी से आज निराशा के भाव क्यों?

Shah Nawaz September 27, 2012 at 10:11 PM  

बेहतरीन लिखा है गिरीश जी....

vandana gupta September 27, 2012 at 10:26 PM  

जीवन है ये एक चुनरिया इस पे धब्बा ठीक नहीं
इतने धब्बे लग गए इनमें आखिर इन्हें छुडाऊँ कैसे

बहुत सुन्दर भावाव्यक्ति।

usharai September 28, 2012 at 8:55 AM  

एक इशारा !!! ये क्या है गिरीश जी ! इसी के कारण ही तो सब चल रहा है ! कितनी सहज उदार और कोमल होती हैं आप की कविताएँ ! चलती रहे ये धारा!

सुनिए गिरीश पंकज को

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