Thursday, November 6, 2014

मैं अपने दर्द का आखिर कहाँ इज़हार कर आऊँ

मैं अपने दर्द का आखिर कहाँ इज़हार कर आऊँ
कोई तो एक हो सच्चा कि उसको प्यार कर आऊँ

यहाँ तो हर कोई पीछे पड़ा है टूट जाऊं मैं
कोई ऐसा नहीं जिसको मैं सब कुछ हार कर आऊँ

वो इक गुमनाम इंसां है मगर जैसे फरिश्ता है
जिए जो सबकी खातिर उसको जीवन वार कर आऊँ

मुझे कमजोर मत समझो बड़ी हिम्मत है मुझमे भी
कहो तो आग के दरिया को जा के पार कर आऊँ

बहुत ही बावरा है मन हजारो ही तमन्नाएँ
ज़रा समझाऊँ नादाँ को तमाचा मार कर आऊँ

1 comment:

  1. बहुत ख़ूबसूरत और सार्थक ग़ज़ल...

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