''सद्भावना दर्पण'

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नीर भरी रहती थी नदिया.....

>> Saturday, April 30, 2016

भयंकर गर्मी और जल संकट. यह सिलसिला बढ़ता जा रहा है. आज नहीं चेते तो भविष्य प्यासा मरने के विवश होगा. वर्तमान समय की जल-त्रासदी पर एक गीत।

नीर भरी रहती थी नदिया,
लेकिन अब खुद प्यासी है।
देख कंठ प्यासे लोगों के,
मन में बड़ी उदासी है।


हरी-भरी धरती को हमने, लूट लिया बन कर ज्ञानी।
सूरज ने गुस्से में आकर, सोख लिया सारा पानी।
अब तो जल के चलचित्र हैं और दुनिया आभासी है।
देख कंठ प्यासे लोगों के,
मन में बड़ी उदासी है। .


पेड़ बचे, नदियां बच जाएँ, गऊ का चारा-सानी भी।
तब विकास सोहेगा हमको, सुंदर हो जिनगानी भी।
ये धरती वरदान धरा को, मत समझो यह दासी है।
देख कंठ प्यासे लोगों के,
मन में बड़ी उदासी है।

अभी भी थोड़ा जल बाकी है, इसको अगर बचा लेंगे।
आने वाले कल को हम सब, पानीदार बना लेंगे।
वरना अब तो बंजर धरती, और गले की फाँसी है।
देख कंठ प्यासे लोगों के,
मन में बड़ी उदासी है।

अब विकास का अर्थ हो गया, पत्थर, पत्थर औ पत्थर।
ताल-तलैया और बावली, पाट दिए सारे बढ़ कर.
माना तुमने प्रगति बड़ी की, पर ये सत्यानाशी है।
देख कंठ प्यासे लोगों के,
मन में बड़ी उदासी है।

1 टिप्पणियाँ:

कविता रावत May 2, 2016 at 12:58 AM  

बहुत अच्छी प्रेरक व चिंतनशील रचना

सुनिए गिरीश पंकज को

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