चार दिन सीखे नहीं के सबको सिखलाने लगे
चंद ऐसे लोग ही हर सिम्त मंडराने लगे
हमने जिनको राह दिखलाई के तुम ऐसे चलो
आज वे बंदे हमें ही आँख दिखलाने लगे
दृष्टि लोगों की अजब धुंधली हुई इस दौर की
इसलिए सिक्के जो खोटे थे वही छाने लगे
राग दरबारी सुना करके सियासी मंच से
कुछ बड़े चालाक भत्ते और पद पाने लगे
बेच कर के आत्मा को पा गए सम्मान तो
चंद बौने और हलकट भाव अब खाने लगे
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १७ जून २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
क्षमा सहित,
Deleteकृपया आमंत्रण १८ जून पढ़ा जाय।
सादर।
आभार
Delete"चंद बौने और हलकट भाव अब खाने लगे" - "अब" या "तब" .. छिछोरे ही भाव खाते हैं अक़्सर .. शायद ...
ReplyDeleteहमने जिनको राह दिखलाई के तुम ऐसे चलो
ReplyDeleteआज वे बंदे हमें ही आँख दिखलाने लगे
अक्सर यही होता है । गहरा कटाक्ष ।
आभार।
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteराग दरबारी सुना करके सियासी मंच से
ReplyDeleteकुछ बड़े चालाक भत्ते और पद पाने लगे
वाह चाटुकारों और चारण कवियों को आइना दिखाती रचना | हार्दिक शुभकामनाएं गिरीश जी |
आभार
Deleteआभार
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