जिनका पथ होता है सीधा,
वे कुछ दूर तलक चलते हैं।
संबंधों के रथ पर चढ़कर,
कुछ पाते हैं तुरत सफलता ।
स्वाभिमान जीने वाले को,
मिलती रहती यहाँ विफलता।
किंतु धैर्य रखकर के वे तो,
दीपक बनकर के जलते हैं।।
बिकने को आतुर प्रतिभाएँ,
पल भर में नीलाम हो गयीं ।
समझ न पाती हैं वे इतना,
खुद कितनी बदनाम हो गयीं ।
लोग बड़े मासूम यहाँ जो -
खुद को खुद से ही छलते हैं ।।
मेहनतकश की सूखी रोटी,
उसको मालपुआ लगती है ।
खाकर वह चुप हो जाता है,
धनपशु की लिप्सा जगती है।
पहले सुख-साँचे में, दूजे -
दुख के साँचे में ढलते हैं।।
वे कुछ दूर तलक चलते हैं।
गिरीश पंकज
बिकने को आतुर प्रतिभाएँ,
ReplyDeleteपल भर में नीलाम हो गयीं ।
समझ न पाती हैं वे इतना,
खुद कितनी बदनाम हो गयीं ।
बहुत लोग या तो वक़्त की मार नहीं झेल पाते या फिर आगे निकलने की बहुत जल्दी रहती है ।।
हर पंक्ति सोचने के लिए मजबूर करती हुई ।
भावपूर्ण गीत ।।
आभारम। आपने मेरे ब्लॉगर को सक्रिय रखा।
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24.02.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4351 में दिया जाएगा| ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी चर्चाकारों की हौसला अफजाई करेगी
ReplyDeleteसादर धन्यवाद
दिलबाग
आभारम
Deleteसंबंधों के रथ पर चढ़कर,
ReplyDeleteकुछ पाते हैं तुरत सफलता ।
स्वाभिमान जीने वाले को,
मिलती रहती यहाँ विफलता।
किंतु धैर्य रखकर के वे तो,
दीपक बनकर के जलते हैं।।
बहुत अच्छी बात कही है आपने ।सुंदर सृजन ।
आभारम
Deleteसंबंधों के रथ पर चढ़कर,
ReplyDeleteकुछ पाते हैं तुरत सफलता ।
स्वाभिमान जीने वाले को,
मिलती रहती यहाँ विफलता।
किंतु धैर्य रखकर के वे तो,
दीपक बनकर के जलते हैं।।
बहुत ही उम्दा वह शानदार रचना
आभारम
Deleteसंबंधों के रथ पर चढ़कर,
ReplyDeleteकुछ पाते हैं तुरत सफलता ।
स्वाभिमान जीने वाले को,
मिलती रहती यहाँ विफलता।
किंतु धैर्य रखकर के वे तो,
दीपक बनकर के जलते हैं... वाह!यथार्थ को भी अगर सहजता से लिखा जाए तब गीत बन जाता है। मुखर हो वही हृदय में ठहर जाता है।
सराहनीय सृजन।
सादर
मेहनतकश की सूखी रोटी,
Deleteउसको मालपुआ लगती है ।
खाकर वह चुप हो जाता है,
धनपशु की लिप्सा जगती है।
पहले सुख-साँचे में, दूजे -
दुख के साँचे में ढलते हैं।।
वे कुछ दूर तलक चलते हैं।..यथार्थपूर्ण बहुत सुंदर गीत ।
आभारम
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