''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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ग़ज़ल

>> Tuesday, April 19, 2022

याद रहा अधिकार मगर हम फ़र्ज़ निभाना भूल गए
देश हमारा धरती अपनी, यही तराना भूल गए

माँ-बाप भी देव हमारे चलते- फिरते मंदिर हैं
चार किताबें पढ़ के उनको शीश झुकाना भूल गए

बैठ किनारे सोच रहे हैं पार भला उतरें कैसे 
क्योंके हम लहरों से जाकर अब टकराना भूल गए

जाने क्या पाने की खातिर भटक रहे हैं हम दर-दर पास रखा संतोष हमारे वही ख़ज़ाना भूल गए

ऐसे खुद में रम गए हम तो दौलत पाकर दुनिया में
घर में हो कर क़ैद कहीं हम आना-जाना भूल गए


9 टिप्पणियाँ:

संगीता स्वरुप ( गीत ) May 16, 2022 at 3:18 AM  

आपकी लिखी रचना मंगलवार 16 मई 2022 को
पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

संगीता स्वरुप ( गीत ) May 16, 2022 at 3:40 AM  

दिनांक ---- 17 मई

अनीता सैनी May 16, 2022 at 7:23 PM  

ऐसे खुद में रम गए हम तो दौलत पाकर दुनिया में
घर में हो कर क़ैद कहीं हम आना-जाना भूल गए.. वाह!गज़ब सर 👌

Usha Kiran May 17, 2022 at 6:31 AM  

याद रहा अधिकार मगर हम फ़र्ज़ निभाना भूल गए
देश हमारा धरती अपनी, यही तराना भूल गए
वाह…बहुत खूब !

Sudha Devrani May 17, 2022 at 7:50 AM  

जाने क्या पाने की खातिर भटक रहे हैं हम दर-दर पास रखा संतोष हमारे वही ख़ज़ाना भूल गए
वाह!!!
लाजवाब गजल।

Sweta sinha May 17, 2022 at 8:39 AM  

बहुत सुंदर रचना ।
प्रणाम
सादर।

Amrita Tanmay May 17, 2022 at 9:05 AM  

बहुत ही बढ़िया सृजन।

usha kiran May 17, 2022 at 9:21 AM  

याद रहा अधिकार मगर हम फ़र्ज़ निभाना भूल गए
देश हमारा धरती अपनी, यही तराना भूल गए
वाह…बहुत सुन्दर रचना!

रेणु May 17, 2022 at 10:54 AM  

याद रहा अधिकार मगर हम फ़र्ज़ निभाना भूल गए
देश हमारा धरती अपनी, यही तराना भूल गए
माँ-बाप भी देव हमारे चलते- फिरते मंदिर हैं
चार किताबें पढ़ के उनको शीश झुकाना भूल गए!!
सरल और सहज अभिव्यक्ति जो मन को छू गई।हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं आदरणीय पंकज जी 🙏🙏🌺🌺

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