ग़ज़ल
>> Saturday, May 21, 2022
काया चली गई लेकिन जो यश था बचा रहा
जिसने जैसा किया तो उसका वैसा सिला रहा
क्षणभंगुर जीवन के सच को जिसने समझ लिया
उसका हर पल सत्कर्मों की खातिर लगा रहा
इक दूजे को दोष ही देना फितरत है उसकी
खुद ही कालिख है चेहरे पर सब को दिखा रहा
ऊपर उठने की ख्वाहिश में कुछ नीचे गिर गए
मन है मैला लेकिन बंदा तन को सजा रहा
जो सत्ता में आया समझो तानाशाह बना
हर कोई चमड़े का अपना सिक्का चला रहा
अपनी एक लकीर कभी जो खींच नहीं पाया
वह बंदा दूजे जी की देखो बढ़कर मिटा रहा
अपने को धोखा देने का काम न कर पंकज
देख तुझे तेरा दर्पण ही सब कुछ बता रहा
@ गिरीश पंकज
9 टिप्पणियाँ:
आभार आपका
बेहद उम्दा गज़ल भाई जी
सराहनीय गज़ल सर।
प्रणाम
सादर।
उम्दा अभिव्यक्ति आदरणीय ।
सार्थक चिंतन लिए शानदार अस्आर।
हर शेर कुछ कह रहा है।
उम्दा प्रस्तुति।
ऊपर उठने की ख्वाहिश में कुछ नीचे गिर गए
मन है मैला लेकिन बंदा तन को सजा रहा///
बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति आदरनीय पंकज जी।सभी शेर झझकोरने वाले हैं।सादर 🙏🙏
अभी का आभार!
आभार
धन्यवाद
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