हाथ में जिसके यहाँ सरकार देखेंगे
जान लो के हाथ में तलवार देखेंगे
बात करते हैं मसीहा लोकतन्त्तर की
और पीछे खड्ग में कुछ धार देखेंगे
सह नहीं सकते कभी निंदा स्वयं की वे
ये सियासी हैं महज जयकार देखेंगे
उस बार धोखे में तुम्हारे आ गए थे हम
क्या हमें करना है अब इस बार देखेंगे
याचकों जैसे कभी जो लोग आते थे
बाद में अकसर उन्हें मक्कार देखेंगे
हर तरफ धोखाधड़ी दिखती सियासत में
जाने कब सज्जन यहाँ दो-चार देखेंगे
कुछ अंधेरा देखकर पंकज करेंगे शोर
हम जलाएँ दीप जब अंधियार देखेंगे
@ गिरीश पंकज
सराहनीय अभिव्यक्ति सर।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २३ जून २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हम जलाएँ दीप जब अंधियार देखेंगे
ReplyDeleteवाह
बहुत बढ़िया
सेटिंग सही नहीं है कविता की, सुधार की जरुरत है
ReplyDeleteअच्छी रचना
बहुत सुंदर
ReplyDeleteसरकार के नाम पर हर बार जुट जाते हैं कुछ मदारी , जनता बन्दर बनी उनकी डुगडुगी पर बस उछल कूद करती रह जाती है ।
ReplyDeleteहोता बस इतना है कि कभी कोई पार्टी तो कभी दूसरी पार्टी सरकार बना लेती है ।
और जनता सोचती है कि किसी एक पार्टी को हरा कर बहुत तीर मार लिया ।
मारक ग़ज़ल
बहुत खूब!
ReplyDeleteसटीक
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteसबका आभार
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