चार दिन सीखे नहीं के सबको सिखलाने लगे
चंद ऐसे लोग ही हर सिम्त मंडराने लगे
हमने जिनको राह दिखलाई के तुम ऐसे चलो
आज वे बंदे हमें ही आँख दिखलाने लगे
दृष्टि लोगों की अजब धुंधली हुई इस दौर की
इसलिए सिक्के जो खोटे थे वही छाने लगे
राग दरबारी सुना कर के सियासी मंच से
कुछ बड़े चालाक भत्ते और पद पाने लगे
बेच कर के आत्मा को पा गए सम्मान तो
चंद बौने और हलकट भाव अब खाने लगे
क्या पता पिछले जनम में किस तरह के जीव थे
आज वे चमचे बने दरबार में गाने लगे
जो नहीं समझे कभी भी ज़िंदगी का फलसफा
फेसबुक में वे सभी को आज समझाने लगे
@ गिरीश पंकज
समय की सच्चाई को आइना दिखाती जरूरी रचना।
ReplyDeleteसटीक । बढ़िया व्यंग्य रचना ।
ReplyDelete