''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
&COPY गिरीश पंकज संपादक सदभावना दर्पण. Powered by Blogger.

साधो यह हिजडों का गाँव-१२

>> Tuesday, August 11, 2009


(35)
खुल्ला खेल फ़रुक्खाबादी.
लूटेंगे हम जी भर कर के, पहन रखी है हमने खादी.
हम ही गुंडे, हम ही पोलिस,  क्या कर लेगी ये आबादी?
लोकतंत्र है, मिली हुई है, सबको यहाँ मस्त आजादी.
पतन देख लो हद है अब तो, होती है समलैंगिक शादी.
देख रहे है नंगाई सारे, टीवी पर अब दादा-दादी.
हम पाखंडी, मगर भक्त है, पूजा-पाठों के है आदी.
लूट रहे है पूँजीवाले, अब गरीब की रोटी आधी.
नंगापन अब सुर्खी बनता, भाए खबर न सीधी-सादी.
सही नही मिलते अब नेता, इसीलिए दिखती बर्बादी.
(36)
साधो नकली सिक्के चलते.
असली की पहचान नहीं है, इसीलिए सब हमको छलते.
सच की होती कहीं प्रतिष्ठा, झूठे सगरे बैठे जलते.
उल्लू के घर बुद्धिमान भी, देखा  मजबूरी में पलते.
शातिर जीत रहे है बाजी, सच्चे रह गए हाथ ही मलते.
कब होगी अच्छो की चर्चा,  दुःख में रोज बेचारे गलते.
(36)
रात को बैठ कबीरा रोता.
कौन यहाँ कुछ सोचे आखिर, लिख देने से क्या कुछ होता..?
मस्त लोग अपनी मस्ती में,  लगा रहे है सुख में गोता.
पाप करे कुछ लोग यहाँ पर,  कवि  बेचारा पीडा ढोता.
लिखना मतलब आहें-आंसू . इन सब को ही दे दो न्योता.
गाली देता यहाँ अघाया और मज़े से बन्दा सोता.
गिरीश पंकज

0 टिप्पणियाँ:

सुनिए गिरीश पंकज को

  © Free Blogger Templates Skyblue by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP