साधो यह हिजडों का गाँव-१२
>> Tuesday, August 11, 2009
(35)
खुल्ला खेल फ़रुक्खाबादी.लूटेंगे हम जी भर कर के, पहन रखी है हमने खादी.
हम ही गुंडे, हम ही पोलिस, क्या कर लेगी ये आबादी?
लोकतंत्र है, मिली हुई है, सबको यहाँ मस्त आजादी.
पतन देख लो हद है अब तो, होती है समलैंगिक शादी.
देख रहे है नंगाई सारे, टीवी पर अब दादा-दादी.
हम पाखंडी, मगर भक्त है, पूजा-पाठों के है आदी.
लूट रहे है पूँजीवाले, अब गरीब की रोटी आधी.
नंगापन अब सुर्खी बनता, भाए खबर न सीधी-सादी.
सही नही मिलते अब नेता, इसीलिए दिखती बर्बादी.
(36)
साधो नकली सिक्के चलते.असली की पहचान नहीं है, इसीलिए सब हमको छलते.
सच की होती कहीं प्रतिष्ठा, झूठे सगरे बैठे जलते.
उल्लू के घर बुद्धिमान भी, देखा मजबूरी में पलते.
शातिर जीत रहे है बाजी, सच्चे रह गए हाथ ही मलते.
कब होगी अच्छो की चर्चा, दुःख में रोज बेचारे गलते.
(36)
रात को बैठ कबीरा रोता.कौन यहाँ कुछ सोचे आखिर, लिख देने से क्या कुछ होता..?
मस्त लोग अपनी मस्ती में, लगा रहे है सुख में गोता.
पाप करे कुछ लोग यहाँ पर, कवि बेचारा पीडा ढोता.
लिखना मतलब आहें-आंसू . इन सब को ही दे दो न्योता.
गाली देता यहाँ अघाया और मज़े से बन्दा सोता.
गिरीश पंकज
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