ग़ज़ल
>> Sunday, August 23, 2009
शख्स वो सचमुच बहुत धनवान है
पास जिसके सत्य है, ईमान है
प्रेम से तो पेश आना सीख ले
चार दिन का तू अरे मेहमान है
एक खामोशी यहाँ पसरी हुई
ये हवेली है की इक शमशान है
मुफलिसी अभिशाप है तेरे लिए
मुझको तो लगता कोई वरदान है
वो महकता है सुबह से शाम तक
जिसके भीतर नेकदिल इनसान है
बाँट दे दिल खोल कर दौलत अरे
पास तेरे गर कोई जो ज्ञान है
हो रहमदिल आदमी इतना बहुत
फ़िर तो क्या अल्लाह, क्या भगवान है
(२)
मेरी जुबां पर सच भर आया
कुछ हाथो में पत्थर आया
मैंने फूल बढाया हंस कर
मगर उधर से खंजर आया
उनको मिली विफलाताये तो
दोष हमारे ही सर आया
मुझे इबादत की जब सूझी
बुझाता घर रोशन कर आया
थकन मिट गयी मेरी पंकज
जब मेरा अपना घर आया
गिरीश पंकज
कुछ हाथो में पत्थर आया
मैंने फूल बढाया हंस कर
मगर उधर से खंजर आया
उनको मिली विफलाताये तो
दोष हमारे ही सर आया
मुझे इबादत की जब सूझी
बुझाता घर रोशन कर आया
थकन मिट गयी मेरी पंकज
जब मेरा अपना घर आया
गिरीश पंकज
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