>> Monday, August 24, 2009
अपने समय के सच को आप लम्बा लेख लिख कर भी रूपायित कर सकते है, कुछ पंक्तियाँ लिख भी काम हो सकता है। मैंने एक ग़ज़ल के मध्यम से कुछ कहने की कोशिश की है । लोकतंत्र को हम देख रहे है, उसकी असलियत भी सामने है. बताइयेगा, कैसा प्रयास है?
ग़ज़ल
लोकतंत्र शर्मिंदा है
राजा अब तक जिंदा है
हमने अपनी बात कही
वे समझे यह निंदा है
मजहब के ख़ूनी दंगे में
घायल श्वेत परिंदा है
साधू का मेकप है लेकिन
भीतर एक दरिंदा है
गिरीश पंकज
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