>> Saturday, September 19, 2009
इस बार चार ग़ज़ले
(१)
तुम मिले तो दर्द भी जाता रहा
देर तक फ़िर दिल मेरा गाता रहा
देख कर तुमको लगा हरदम मुझे
जन्म-जन्मो का कोई नाता रहा
दूर मुझसे हो गया तो क्या हुआ
दिल में उसको हर घड़ी पाता रहा
अब उसे जा कर मिली मंजिल कहीं
जो सदा ही ठोकरे खाता रहा
मुफलिसी के दिन फिरेंगे एक दिन
मै था पागल ख़ुद को समझाता रहा
ज़िन्दगी है ये किराये का मकां
इक गया तो दूसरा आता रहा
(२)
जो दिन लौट नही पाए बस उसको याद किया हमने
काश कभी वे फ़िर आ जाते ये फरियाद किया हमने
तुमसे दूर बहुत हो कर भी कहाँ रही ये तन्हाई
बस यादों की महफ़िल को अकसर आबाद किया हमने
हमने सुख पाने की खातिर ये तरकीब निकली है
ख्वाहिश के हर बंधन से ख़ुद को आजाद किया हमने
कैसे मिले चैन जीवन को आख़िर ये तो सोचो तुम
निंदा में केवल इस जीवन को बर्बाद किया हमने
(३)
सच की राह में दुश्वारी है
लेकिन अपनी तैयारी है
चाहे जितनी तकलीफे हो
इन सबसे अपनी यारी है
जितना चाहे इम्तिहान लो
मैंने हिम्मत कब हारी है
पास तुम्हारे गर दौलत है
अपने हिस्से खुद्दारी है
मुझे ग़रीबी में रहने दो
दौलत भी तो बीमारी है
मरते है सच कहने वाले
सदियों से ये सब जारी है
बिछे जा रहे ये चरणों पर
कुछ पाने की लाचारी है
(४)
शातिरों को सर चढाना बंद हो
अब शरीफों को सताना बंद हो
जो है सीधा अब वही बेकार है
दौर कुछ ऐसा चलाना बंद हो
ये सियासत वेश्या से कम नही
हर घड़ी उसको लुभाना बंद हो
अब कहाँ कविता बचेगी दोस्तों
बेतुकी को तुक बताना बंद हो
त्रासदी तो देखिये इस दौर की
दर्द बहारो को सुनाना बंद हो
1 टिप्पणियाँ:
गिरीश पंकज जी,
यों तो चारों गज़लें उम्दा हैं ..बेहतरीन हैं..........
लेकिन निजि तौर पर
तीन और चार नंबर की गज़लें
मुझे बहुत बहुत भाई है .....
आपको हार्दिक बधाई है ........
_________अभिनन्दन इन अनुपम पंक्तियों का.........
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