''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
&COPY गिरीश पंकज संपादक सदभावना दर्पण. Powered by Blogger.

>> Saturday, September 19, 2009



इस बार चार ग़ज़ले

()
तुम मिले तो दर्द भी जाता रहा
देर तक फ़िर दिल मेरा गाता रहा
देख कर तुमको लगा हरदम मुझे
जन्म-जन्मो का कोई नाता रहा
दूर मुझसे हो गया तो क्या हुआ
दिल में उसको हर घड़ी पाता रहा
अब उसे जा कर मिली मंजिल कहीं
जो सदा ही ठोकरे खाता रहा
मुफलिसी के दिन फिरेंगे एक दिन
मै था पागल ख़ुद को समझाता रहा
ज़िन्दगी है ये किराये का मकां
इक गया तो दूसरा आता रहा
()
जो दिन लौट नही पाए बस उसको याद किया हमने
काश कभी वे फ़िर जाते ये फरियाद किया हमने
तुमसे दूर बहुत हो कर भी कहाँ रही ये तन्हाई
बस यादों की महफ़िल को अकसर आबाद किया हमने
हमने सुख पाने की खातिर ये तरकीब निकली है
ख्वाहिश के हर बंधन से ख़ुद को आजाद किया हमने
कैसे मिले चैन जीवन को आख़िर ये तो सोचो तुम
निंदा में केवल इस जीवन को बर्बाद किया हमने

()
सच की राह में दुश्वारी है
लेकिन अपनी तैयारी है
चाहे जितनी तकलीफे हो
इन सबसे अपनी यारी है
जितना चाहे इम्तिहान लो
मैंने हिम्मत कब हारी है
पास तुम्हारे गर दौलत है
अपने हिस्से खुद्दारी है
मुझे ग़रीबी में रहने दो
दौलत भी तो बीमारी है
मरते है सच कहने वाले
सदियों से ये सब जारी है
बिछे जा रहे ये चरणों पर
कुछ पाने की लाचारी है
()
शातिरों को सर चढाना बंद हो
अब शरीफों को सताना बंद हो
जो है सीधा अब वही बेकार है
दौर कुछ ऐसा चलाना बंद हो
ये सियासत वेश्या से कम नही
हर घड़ी उसको लुभाना बंद हो
अब कहाँ कविता बचेगी दोस्तों
बेतुकी को तुक बताना बंद हो
त्रासदी तो देखिये इस दौर की
दर्द बहारो को सुनाना बंद हो

गिरीश पंकज

1 टिप्पणियाँ:

Unknown September 20, 2009 at 4:33 AM  

गिरीश पंकज जी,

यों तो चारों गज़लें उम्दा हैं ..बेहतरीन हैं..........

लेकिन निजि तौर पर

तीन और चार नंबर की गज़लें

मुझे बहुत बहुत भाई है .....

आपको हार्दिक बधाई है ........

_________अभिनन्दन इन अनुपम पंक्तियों का.........

सुनिए गिरीश पंकज को

  © Free Blogger Templates Skyblue by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP