>> Monday, September 21, 2009
दो ग़ज़ले और...
(१)
दूसरों के दर्द से बेजार है
आदमी वह देव का अवतार है
जी रहा है सिर्फ़ जो अपने लिए
आदमी कहना उसे बेकार है
अपनी खुशियाँ जो सभी को बांटता
उसके हिस्से रोज़ ही त्यौहार है
एक बच्चा आ गया जब से इधर
ज़िन्दगी वीरान थी गुलज़ार है
तंग थे ये हाथ पर फैले नही
आदमी वाकई बड़ा खुद्दार है
मौत पर जिसके ज़माना रो पड़े
सच कहू पंकज वही किरदार है
(२)
मुझको सबकी मिली दुआएं
कैसे टिकती यहाँ बलाएँ
तोड़ सकीं न मुझको आंधी
हिम्मत से भागी विपदाएं
प्यार की दौलत कम न होगी
चाहे तो दिन-रात लुटाएं
सत्ता कही झुका न पाई
हम क्या हैं कैसे समझाएं
प्रतिभा को मेरा प्रणाम है
चाहे जितना मुझे झुकाएं
सचमुच हिम्मत वाले है तो
दुश्मन को भी गले लगायें
बाहर कोई भूखा होगा
रोटी खा कर भूल न जायें
निंदा बड़ा रसीला फल है
लेकिन इसको कभी न खाएं
तुम मुसकाओ हम मुसकाएं
पंकज अपना फ़र्ज़ निभाएं
2 टिप्पणियाँ:
जी रहा है सिर्फ़ जो अपने लिए
आदमी कहना उसे बेकार है
भई वाह, बहुत खूब. क्या उम्दा भाव है, आनन्द आ गया. बधाई.
मौत पर जिसके ज़माना रो पड़े
सच कहू पंकज वही किरदार है
girish ji, jitni tareef karun kam hai, behatareen aur lajawaab gazlen. badhaai sweekaren.
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