नवरात्र पर विशेष कविता..
>> Tuesday, September 22, 2009
स्त्री....
मेरे कवि-मित्र है शरद कोकस । अपने ब्लॉग में इन दिनों नवरात्र विशेष के तहत स्त्रियों के हक में लिखी गए कुछ कविताये दे रहे है। इन कविताओ का स्त्री-विमर्श हमें सोचने पर मजबूर करता है। मै क्या सोचता हूँ? इस हेतु प्रस्तुत है एक ग़ज़ल. समाज में तरह-तरह के लोग है. किसी लम्पट आदमी ने औरत को जला दिया, या बलात्कार कर लिया तो इससे औरत का महत्त्व कम नहीं हो जाता. उथली मानसिकता से ग्रस्त लोगो द्वारा अकसर व्यंग्य में यह कह दिया जाता है कि लोग औरत को देवी कहते है और उसके साथ बुरा आचरण भी करते है.लेकिन माफ़ करें, ऐसा कुछ लोग ही करते है. अधिकांश लोग स्त्री के प्रति आदर भावः ही रखते है. मै बुरी घटनाओ के निकष पर औरत की अस्मिता को रख कर नहीं देखता. औरत के अनेक रूप है. अपने हर रूप में औरत सफल रहती है. पुरुषों के मुकाबले में उसका समर्पण बड़ा है, इसीलिए वह पूजी जाती है. नवरात्र इसका बहुत बड़ा प्रमाण है. अब इसके बावजूद औरत के साथ कही कुछ बुरा घटित होता है तो औरत की क्या गलती? अपराध तो उस आदिम-प्रवृत्ति का ही है जो कभी-कभी माँ, बहन जैसे पवित्र रिश्ते तक को कलंकित कर देता है. फूल ईश्वर पर चढ़ता है, वेश्या के कोठे पर भी बिखरता है, प्रेयसी के जूडे में भी सजता है, और किसी निर्मम हाथो द्वारा मसल भी दिया जाता है. दोष फूल का नहीं मसलने वाले का है. सजा उसे मिले, स्त्री को नहीं. यह भी ध्यान रखा जाये कि पूरी की पूरी मानसिकता मसलने वाली नहीं है. इसलिए इधर के स्त्री-लेखन में आक्रोश ऐसी ही प्रवृत्ति पर उतरना चाहिए, न कि समूची पुरुष जाति पर. इधर के स्त्री-लेखन को इस तरफ विचार करना चाहिए. गुस्से में कपडे उतारने की मानसिकता से आगे निकल कर लोगो का आईना दिखाना औए उनको कपडे पहनने की सकारात्मक सोच से ही साहित्य और समाज का भला हो सकता है. यह समय नकारात्मक बोध या घृणा नहीं प्रेम और विवेक फैलाने का है. आपकी नवरात्र विशेष ने प्रेरित किया औए मैंने कुछ शेर लिख मरे. हलचल मचती है तो सृजन अपने आप हो जाता है. कविता सोच-सोच कर गढ़नी नहीं पड़ती, वह फिर उतरती है....जैसा कि आजकल हो रहा है. बहरहाल, पेश है मेरे शेर. मै पूजा-वगैरह तो नहीं करता, लेकिन जीवंत देवियों को नमन ज़रूर करता हूँ. मेरी यह कविता एक तरह की देवी-वन्दना ही है. देखें...
दिव्य है, महान है स्त्री....
शक्ति का संधान है स्त्री
ईश का वरदान है स्त्री
खुशबुओ से जो महकती है
एक वह उद्यान है स्त्री
देवता जिसकी शरण में है
धरा पे भगवान है स्त्री
मत नज़र डालो बुरी इस पे
हम सभी की शान है स्त्री
है तुम्हारी माँ, बहन, बेटी
उनके जैसी आन है स्त्री
फूल को मसलो नहीं पूजो
सृष्टि का अवदान है स्त्री
वासना जिनकी रही पूजा
उनके लिए सामान है स्त्री
गाय, गंगा और धरती माँ
दिव्य है, महान है स्त्री
4 टिप्पणियाँ:
गिरीश भाई धन्यवाद । लेकिन मेरे इस ब्लोग का नाम शब्दों का सफर नही है यह ब्लोग " शरद कोकास " के नाम से ही है जहाँ मेरी व मित्रों की कवितायें प्रस्तुत की जाती हैं । इस नवरात्र मे मै यहाँ कव्यित्रियों की कवितायें दे रहा हूँ आप इस अभियान से प्रेरित हुए और न सिर्फप्रेरित हुए बल्कि आपने एक सुन्दर रचना भी कर डाली यह मुझे अच्छा लगा । स्त्री को हम ईश्वर के समकक्ष न माने लेकिन उसे स्त्री तो मानें । बस यही सन्देश है मेरा । आपको अनंत शुभकामनायें -शरद कोकास
बहुत सुन्दर कविता पंकज भईया. या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता.
ati sundar
WAH BHAI
KYA KHOOB LIKHA H
WAH BHAI WAH
"GIRISH JI" KAHI IESTIRI KO BHI KUCHH SAMAJHO
SHABDO KA KOI JAAL BANAO
RAHNE KA AB DHANG BATAO
SAMAYE MILE TO YEH BHI BATAO
JIWAN MEIN NA KHALAL LAGAO
ROOP KI NUMAISHA LAGAO.
CHAND PE JAO, MANGAL PE JAO
JIWAN KO NA AMANGAL BANAO.
HUM PUJATE H ....
VARNA ..........
BAHAN/BETI/ MAA MANATE H .....
ISLIYE HI SOCH MEIN PAD JATE H.
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