>> Saturday, September 26, 2009
दो नई गज़लें
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(१)
दोस्तो उस आदमी की शान जिंदा है
मुफलिसी में भी अगर ईमान जिंदा है
जो नही बिकते कभी दरबार में जा कर
उन फकीरों की यहाँ पहचान जिंदा है
कौन उसको रोक पायेगा भला सोचो
कर गुजरने का अगर अरमान जिंदा है
दर्द हमको देर तक रोने नही देते
आंसुओं में भी कहीं मुस्कान जिंदा है
खूब पूजा-पाठ करते है इबादत भी
क्यूं मगर दिल में कोई शैतान जिंदा है
मर नही सकती कभी इंसानियत पंकज
गर कहीं पर एक भी इन्सान जिंदा है
(२)
भला कैसे थमूंगा मै, अभी तो दूर जाना है
पड़ावों से गुजर कर आख़िरी वो आशियाना है
नही आसान ये मंजिल सफर में मुश्किलें भी हैं
मगर जो काट ले हंसकर उसी का ये ज़माना है
न कोई है बड़ा-छोटा सभी तो एक हैं यारो
उठाओ मत कोई दीवार आँगन ये सुहाना है
भटकते हैं यहाँ दिन-रात दौलत के लिए पागल
हमारे पास है संतोष पंकज का खजाना है
6 टिप्पणियाँ:
girish ji , aapki gazlen kaabile tareef hain, lajawaab. badhaai.
बहुत खूब !
बहुत सुन्दर गजलें हैं भईया. आपके दिलकश गजलों के खजाने में से इन दो गजलों को पढकर आपकी ही पंक्तियां याद आ रही हैं -
अपने आंगन में बसंत को कैद कर लिया है,
लेकिन हमको थमा दिए कुछ पत्ते झरे हुए.
एक ब्लाग अपनी गजलों का ही बनायें. नहीं तो इस ब्लाग में ही गजलों का खजाना बरसायें.
दोनों ही उम्दा गज़लें हैं. बहुत खूब!!
बहुत खूबसूरत गज़ले
gajal padh kar aapkee kuchh puraanee kawitaa yaad aa gai. like ek baat kahnaa chahtaa hun main namee ke beech ki aadmee ban kar rahen ham aadmee ke beech.....
Ramesh Sharma, rsahara, raypur
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