साधो यह हिजडों का गाँव-4
>> Thursday, October 29, 2009
व्यंग्य-पद
(11)साधो अब मसखरे पलेंगे।
व्यंग्य रखो अंटी में अपनी, मंचों पर चुटकुले चलेंगे।
जो नैतिक हैं उन लोगों से, लंपट-पापी बहुत जलेंगे।
सच्चे सदा रहेंगे वंचित, झूठे सुख में नित्य ढलेंगे।
चमचो के चेहरों पर लाली, अच्छे तिल-तिल रोज गलेंगे ।
तुमको ही अब टलना होगा, शातिर बिल्कुल नहीं टलेंगे।
(12)
मरे हुए को मिलता नाम।
जि़दा लोगों की बस्ती में, आखिर मुर्दों का क्या काम।
टुकड़े चाट रहे दरबारी, ले-ले कर के प्रुभ का नाम।
धन्य बाप तेरी ऊँचाई, बेटे के संग पीता जाम।
देख के दुनिया के छल-छिद्दर, भाग गए हैं अल्ला-राम।
जो शरीफ हैं उन पर कीचड़, फेंक रहे घोषित बदनाम।
(13)
अब तो सब कुछ खुला-खुला है।
क्या लड़का, क्या लड़की देखो, कौन यहाँ पर दूध धुला है।
नई सभ्यता बदन उघारो, यही प्रगित की आज तुला है ।
फटी पैंट में दिखते लड़के, लड़की का तन मिला-जुला है ।
कुरता और सलवार बाप रे, लड़की का मुँह फुला-फुला है।
क्या होगा अपने पूरब का, पश्चिम होने पर जो तुला है।
4 टिप्पणियाँ:
Girish ji,
bahut hi khoobsurat vyangpad hain....
bas pahle pad mein dusri line dhara se alag arth lee hui prateet hoti hai...
सभी रचनये अछी लगी पढ कर आनन्द हुआ
व्यंग्य रखो अंटी में अपनी, मंचों पर चुटकुले चलेंगे।
चलेंगे नहीं....चल रहे हैं. :)
lajawaab.
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