>> Friday, October 30, 2009
साधो यह हिजडों का गाँव-5
व्यंग्य-पद
(14)
कैसी है अपनी सरकार।
अपने लोगों पर ही पड़ती, गोली औ डंडों की मार।
लोकतंत्र अब गाली-सा है, बहती है अँसुवन की धार।
जो विरोध में खड़े हुए हैं, उनके ऊपर ल_ï प्रहार।
उनका अभिनंदन होता है, जो करते केवल जयकार।
कैसी यह आज़ादी जिसमें, दिखे $गुलामी का व्यवहार।
(15)
कैसे कहें इन्हें अ$खबार।
समाचार कम दिखते जिसमें, पसरा रहता है व्यभिचार।
डॉन-मा$िफया फ्रंट पेज़ पर, जगह न पाते हैं $फनकार।
नेताओं की गोद में खेलें, अफसर इनके सच्चे यार।
मिशन बन गया आज कमीशन, संपादक ज्यों ठेकेदार।
समाचार में विज्ञापन है, या विज्ञापन में समाचार।
(16)
वाहे रे संपादक, तू दल्ला।
लिखना-पढना भूल गया सब, केवल धंधे का दुमछल्ला।
$कलम नहीं दिखती पॉकिट में, मोबाइल है माशाअल्ला।
मालिक के काले कामों का, रक्षक बन कर घूमे लल्ला।
सेठों का हित सर्वोपरि है, इसीलिए करता बस हल्ला।
प्रायोजित खबरों को छापे, भरता घर में पैसा-गल्ला।
2 टिप्पणियाँ:
भाई पंकज जी
मैं आपके इन पदों के लिए आपका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ..........
सच !
आनन्द आ गया,,,,,,,,,खरी चोट की आपने.........
गिरीश जी किन शब्दों में प्रशंशा करूँ आपके इन व्यंग बाणों की वाह...आपके तरकश में ऐसे तीर हैं जो हर किसी की बखिया उधेड़ कर फैंक सकते हैं...कमाल का व्यंग लेखन है...आप के ये दोहे बरसों बरस याद रहेंगे...
नीरज
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