''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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>> Saturday, October 31, 2009


साधो यह हिजडों का गाँव-6

व्यंग्य-पद

(17)
राजनीति है काला धंधा।
श्वेत वस्त्र में दिखते नेता, लेकिन काम सभी का गंदा।
जनता की खातिर नेता है, लूला-लंगड़ा, बहरा-अंधा।
नीति मर गई, राज बचा है, आओ चल कर दें हम कंधा।
भूले से इक भला आ गया, लगा उसी के गले में फंदा।
केवल जो अपनी सोचे हैं, समझो वहीं नेक है बंदा।
(18)
ये काहे के रिश्तेदार।
पैसा है तो आगे-पीछे, नंबर वन के चाटूकार।
काम कभी ना आते हैं जो, हरकत केवल टाँग उखाड़।
कान के कच्चे, ज्ञान के सूखे, करें कभी न सत्य विचार।
अपनी जीत पे इतराएंगे, दूजे की बस चाहें हार।
दूर रहो, इनको पहचानो, अगर चाहिए सुख-आधार।
(19)
सब धरमों में फरज़ीवाड़ा।
अग्रभाग तो पावन दिखता, पाप में डूबा है पिछवाड़ा।
मेरा धर्म है सबसे अच्छा, बना दिया है एक अखाड़ा।
मंदिर भी धंधे का अडडा, मिलता है दुकान का भाड़ा।
धर्म-प्यार ये एक जान थे, अब दिखता इनमें दो-फाड़ा।
धर्म है अच्छा लोग बुरे हैं, ये ही करते नित्य कबाड़ा।

5 टिप्पणियाँ:

ब्लॉ.ललित शर्मा October 31, 2009 at 11:06 AM  

गिरीश भैया-जब हाट के उसले बेरा हो जथे तभे आप मन जिनिस के पसरा हाँ माड़थे, मै निवेदन करे हंव भैया तईसने कर ना गा
अड़ बड़ सुग्घर-नवीन कबीर बानी पढे ला मिलत हे-आभार

Unknown October 31, 2009 at 11:55 AM  

ख़ूब नंगा कर रहे हो.........
गंदे चरित्रों को.........
बधाई !

Yogesh Verma Swapn October 31, 2009 at 4:33 PM  

girish ji , rachnaon ke saath aapki boldness ko dilse aur khulkar daad deta hun, aap kabir ke sachcheanuyayi hain.

नीरज गोस्वामी November 2, 2009 at 1:57 AM  

अप्रितम रचना है ये आपकी...कटाक्ष की चरम स्तिथि...वाह...कस कस कर तीर मारे हैं आपने...चाहे वो नेता हों...रिश्तेदार हों या धर्म के ठेकेदार हों...नमन है आपकी लेखनी को...वाह...
नीरज

नीरज गोस्वामी November 2, 2009 at 2:12 AM  

पंकज जी
अप्रतिम रचना है ये आपकी...कटाक्ष की चरम स्तिथि...वाह...कस कस कर तीर मारे हैं आपने...चाहे वो नेता हों...रिश्तेदार हों या धर्म के ठेकेदार हों...नमन है आपकी लेखनी को...वाह...
नीरज

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