.. गीत ... ओ करुणा जग री.
>> Tuesday, October 20, 2009
गीत...
कब तक सोती रहे बावरी ,ओ करुणा जग री.
देख जरा पत्थरदिल कैसे,
हो गई है नगरी.
एकाकी हो कर के हम तो,
हंसना भूल गए.
बस्ती में रहते हैं लेकिन,
बसना भूल गए.
दुनिया से पहले तू खुद को,
अब तो ना ठग री..
जब भी कोई अंतस बढ़ कर,
पावन-शुद्ध हुआ.
वही अचानक बोधि-वृक्ष के-
नीचे बुद्ध हुआ.
सार यही है सच्चा कहती,
ये दुनिया सगरी..
खून बहा कर तृप्त हो रहे,
मूक पशु का हम.
स्वाद हमारा अब तक आदिम,
भूख हुई न कम ?
देख जरा भीतर की नैया,
होती डगमग री...
गिरीश पंकज
5 टिप्पणियाँ:
खून बहा कर तृप्त हो रहे,
मूक पशु का हम.
स्वाद हमारा अब तक आदिम,
भूख हुई न कम ?
देख जरा भीतर की नैया,
होती डगमग री...
बहुत उम्दा अभि्व्यक्ति
बहुत बढिया लिखा है।बधाई।
खून बहा कर तृप्त हो रहे,
मूक पशु का हम.
स्वाद हमारा अब तक आदिम,
भूख हुई न कम ?
देख जरा भीतर की नैया,
होती डगमग री...
धन्य ही गिरीशजी....
बहुत ही उत्तम गीत,,,,,,,
आनन्द आ गया !
___अभिनन्दनधन्य ही गिरीशजी....
wah girish ji, जब भी कोई अंतस बढ़ कर,
पावन-शुद्ध हुआ.
वही अचानक बोधि-वृक्ष के-
नीचे बुद्ध हुआ.
सार यही है सच्चा कहती,
ये दुनिया सगरी.
in panktion ki jitni tareef karun kam , bahut khoob, wah wah wah wah wah. anand aa gaya.
बरसों पहले बुद्ध ने भी इसी तरह मनुष्य की करुणा को जगाने का प्रयास किया था लेकिन मनुष्य ने उस करुणा का अर्थ नहीं जाना और सदियो के लिये गुलाम हो गया ।
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