>> Sunday, October 11, 2009
अंधेरे के विरुद्ध इरोम शर्मीला छानू...
इरोम शर्मिला छानू...यह नाम अब किसी परिचय का मोहताज नही है. वह पिछले आठ वर्षो से आमारण अनशन पर है। उसकी एक सूत्री मांग है-मणिपुर में फौज को मिले विशेषाधिकार को समाप्त किया जाए। पूरा देश जानता है कि अपने विशेषाधिकार के कारण वहाँ फौज ने नागरिकों पर कितने कैसे-कैसे अत्याचार किए हैं. अत्याचार की इंतिहा को समझाने के लिए यहाँ घटना ही पर्याप्त है कि सेना-मुख्यालय के सामने कुछ आक्रोशित महिलाओं ने पूरी तरह से निर्वस्त्र हो कर प्रदर्शन किया था. तब पूरे देश का माथा शर्म से झुक गया था. शर्मिला की जिद है की जब तक विशेषाधिकार कानून वापस नही होगा, उसका अनशन जारी रहेगा। सरकार ने तमाम कोशिशे की लेकिन वह शर्मिला को झुका नही सकी। अब उसके मुंह में जबर्र्दस्ती भोजन डाला जा रहा है ताकि वह जिंदा रह सके। प्रस्तुत है एक काव्याभिव्यक्ति शर्मिला के साहस के नाम-
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अंधेरे के विरुद्ध लड़ती दीपशिखा का नाम है/ इरोम शर्मिला छानू/ और अँधेरा भी कैसा/ जिस पर स्वर्ण-कलश-सा मढा है/ जिसे अपनों ने ही गढा है/ काला...भयावह अँधेरा/अंधेरे से भी ज़्यादा डरावना/ एक दिन जब नही रहेगी शर्मिला / तब सबसे पहले अँधेरा ही सामने आएगा और उसकी स्मृति में उजाले का सम्मान बांटेगा/ उसके बावजूद चलती रहेंगी अपनों पर गोलियाँ/ हमेशा की तरह बदस्तूर/ लोक को दुश्मन समझ बैठे तंत्र की करुणा बड़ी अजीब होती है/ गोली मार कर मुआवजे बांटने और जांच कमीशन बिठाना भी एक नई कला है शायद/ शर्मिला आमरण अनशन पर है/ गोलियों के विरुद्ध/ अत्याचार के विरुद्ध/लगता है न जाने कितनी शताब्दियों से अनशन पर बैठी है शर्मीला अनशन पर/ अनशन है की टूटता ही नही/ हम मगन हैं/ नए-नए सुखों की तलाश में/ और शर्मीला जूझ रही है शांति के लिए/ मणिपुर की शर्मिला सोचती है/ देश भर की औरते भी खड़ी होंगी उसके साथ एक दिन/ करेंगी धरना-प्रदर्शन/ आएंगी उसके पास/ लेकिन ऐसा कुछ होता नही/ क्योंकि अभी ये बेचारी औरते.....? कुछ बिजी है/ नए-नए फैशन शो में/ किटी पार्टी में/ बाज़ार के नए-नए उत्पादों की खरीदी में/ फ़िर भी जारी है शर्मीला का आमरण अनशन/ बर्बर हो चुके अंधेरे के विरुद्ध/ खामोश रहो/ मत करो शोर/ यहाँ लेटी है एक जवान लड़की/ अपनी जर्जर काया के साथ/ अहिंसक उजाले की प्रत्याशा में/ख़ुद को प्रताडित करती शर्मिला को समझाना फिजूल है/ जल रही है दीपशिखा-सी शर्मिला/ अन्याय के विरुद्ध/ इस आशा के साथ कि उसके सपने की सुबह एक दिन ज़रूर चाह्चहाएगी/ चिडिया की तरह/लेकिन अभी तो लम्बी है रात/ गहन है/ आ रही है झींगुरों की आवाजें/ खट...खट...खट.../उल्लुओं की गश्त जारी है/ गूंगी-बहरी और नंगी व्यवस्था को देख साहस शर्मसार शर्मीला/ इसी आस में जिंदा है कि अँधेरा लंबे समय तक काबिज नही रहता/ भोर की पहली किरण आएगी और गाएगी/ उजाले का निर्भय-गान/ चमकेगा लोकतंत्र का दिनमान/ मगर अभी तो अँधेरा हंस रहा है/ पसरा है लहूलुहान सन्नाटा/ और एक नन्ही चिडिया गा रही है अपना गीत/ अंधेरे के विरुद्ध/पता नही कब तक ...?
कब तक...??
क.....
ब....
त...
क.........????
1 टिप्पणियाँ:
वाह.... साधुवाद..
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